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Daily-current-affairs / 12 Jun 2024

भारत का वित्तीय संकट : डेली न्यूज़ एनालिसिस

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सन्दर्भ:

  • निरंतर तीव्र गति से बढ़ता हुआ ऋण प्रारंभिक रूप से समृद्धि का सूचक है, किंतु दीर्घकाल में यह वित्तीय संकटों को जन्म दे सकता है। भारत वर्तमान में कार्मेन रेनहार्ट और केनेथ रोगॉफ़ द्वारा उजागर किए गए भ्रम का सामना कर रहा है, जहाँ सरकारें और बाज़ार अतीत के वित्तीय संकटों को इस दावे के साथ नकारते हैं कि 'इस बार परिस्थिति भिन्न है' और देश के प्रदर्शन को अनावश्यक रूप से बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करते हैं।

भारत की वित्तीय असुरक्षा:

  • अत्यधिक आशावादी अपेक्षाएँ: भारत इस समय अत्यधिक आशावादी अपेक्षाओं के चक्र में फँसा हुआ है। यह स्थिति नीति निर्माताओं द्वारा देश के आर्थिक प्रदर्शन को अतिरंजित रूप से प्रस्तुत करने के कारण उत्पन्न हुई है। "इस बार परिस्थिति भिन्न है" का आख्यान डिजिटल बुनियादी ढांचे के बल पर वित्तीय नवाचार और समावेश को बढ़ावा देता है, जो आर्थिक विकास और समानता का वादा करता है। यद्यपि, इस दृष्टिकोण के कारण वित्तीय क्षेत्र का विनियमन कमज़ोर हुआ है और ऋण में वृद्धि हुई है।
  • दशकों की आर्थिक नीतियाँ: हालिया सरकारों के कार्यकालों ने निश्चित रूप से इस स्थिति को जन्म देने में योगदान दिया है, लेकिन पिछले तीन दशकों की आर्थिक नीतियों को भी इसके लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। रोज़गार-सृजन करने वाले विनिर्माण क्षेत्र के विकास में असफल रहने के कारण, नीति निर्माताओं ने जीडीपी विकास दर को बढ़ाने के लिए वित्तीय क्षेत्र पर निर्भरता बढ़ाई है। पिछले दशक में जीडीपी वृद्धि के एक चौथाई से अधिक भाग में वित्तीय क्षेत्र का योगदान रहा है।

ऋण वृद्धि की प्रशंसा:

  • अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की प्रशंसा: अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू दोनों विश्लेषकों ने हालिया ऋण वृद्धि की सराहना की है। दिसंबर 2023 में, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने मजबूत बैंक ऋण वृद्धि और कम गैर-निष्पादित आस्तियों को देखते हुए भारत के वित्तीय क्षेत्र की प्रशंसा की थी।
  • घरेलू विश्लेषकों का समर्थन: इसी तरह, मार्च 2024 में नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा की गई समीक्षा में बैंक ऋण में 20% की वृद्धि का स्वागत किया गया। वि-औद्योगिक ऋण में स्थिरता के बावजूद व्यक्तिगत ऋण में वृद्धि को उन्होंने सकारात्मक संकेत के रूप में देखा।

भारत का आसन्न वित्तीय संकट:

  • अंतर्निहित कमियों की अनदेखी: ऋण वृद्धि रोज़गार और मानव पूंजी की मौजूदा कमियों की अनदेखी कर रही है, जिससे एक जोखिमपूर्ण परिदृश्य का निर्माण हो रहा है। हालाँकि ऋण का विस्तार हो रहा है, वित्तीय क्षेत्र स्वस्थ्यपूर्ण प्रतीत होता है क्योंकि नए ऋण पुराने ऋणों का समाधान कर रहे हैं। यद्यपि, जब ऋण देने की गति धीमी पड़ती है और अतिरिक्त ऋण प्राप्त करने के विकल्प समाप्त हो जाते हैं, तो स्थिति अस्थिर हो सकती है।
  • घरेलू ऋण में वृद्धि: वित्तीय मध्यस्थ संस्थान ऋण को बढ़ावा दे रहे हैं, जिससे निम्न और मध्यम आय वाले परिवार आवास, गैजेट्स, कार, शिक्षा और जीवनशैली पर खर्च करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। यद्यपि, यह घरेलू ऋण में वृद्धि मौलिक रूप से जोखिमपूर्ण है। यह उत्पादकता बढ़ाने के बजाय घरेलू कीमतों को बढ़ाती है, जिससे प्रतिस्पर्धा कमज़ोर होती है।
  • अर्थशास्त्रियों की चेतावनी: अर्थशास्त्री आतिफ मियाँ और आमिर सुफी आगाह करते हैं कि बढ़ते घरेलू ऋण भार के कारण गंभीर आर्थिक मंदी सकती है। भारी ऋण वाले परिवार और व्यवसाय ऋण चुकाने के लिए खर्च में सख्त कटौती करते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था संकुचित हो जाती है। भारत में भी यही स्थिति दोहराई जाने की संभावना है, क्योंकि घरेलू ऋण सालाना 25% से 30% की दर से वृद्धि कर रहा है।
  • शेयर बाजार और विनिमय दर की जटिलताएं: खराब ऋण वृद्धि के साथ-साथ शेयर बाजार भी कमज़ोर कॉर्पोरेट निवेश और मंद उपभोक्ता खर्च से अलग हटकर बढ़ रहा है। इसके अतिरिक्त, मुद्रा विनिमय दर का अधिक मूल्य और संभावित रूप से अविश्वसनीय आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने की प्रवृत्ति भी चिंता का विषय है।

भारत के वित्तीय क्षेत्र की जटिलताओं के जोखिम

  • अव्यवस्थित वित्तीय सेवा उद्योग: भारत के उदारीकरण ने एक जटिल वित्तीय सेवा उद्योग को जन्म दिया है, जिसमें बड़े बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) के साथ-साथ कई छोटे खिलाड़ी भी शामिल हैं। हालाँकि, ऋण देने के अवसर कम हो गए हैं, जिससे संस्थानों को आक्रामक रूप से लाभ कमाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।
  • घरेलू ऋण की ओर रुझान: कोविड-19 महामारी के दौरान, ऋण देने का रुझान घरों की ओर स्थानांतरित हो गया, जिसमें फिनटेक कंपनियां उच्च ब्याज दर वाले ऋणों की पेशकश कर रही थीं। कई कर्जदार ऐसे ऋणों पर निर्भर हो गए, जिसके कारण असुरक्षित घरेलू ऋण का एक बड़ा हिस्सा बन गया।
  • क्रेडिट कार्ड स्वामित्व में वृद्धि: भारत में क्रेडिट कार्ड स्वामित्व में तेजी से वृद्धि हुई है, लेकिन कम ऋण-योग्य व्यक्तियों के लिए आक्रामक विपणन ने चिंता पैदा कर दी है। कई लोग, पुरस्कारों और ऑफरों के लालच में फंसकर कर्ज़ के जाल में फंस गए, जो एक व्यापक आर्थिक जोखिम है।
  • घरेलू खपत: ऋण वृद्धि के बावजूद, घरेलू खपत में सुधार नहीं हो रहा है। उच्च घरेलू ऋण-सेवा अनुपात, जो अन्य देशों में संकट से पहले के स्तरों के समान है, आने वाली परेशानी का संकेत देता है। यह संकट तेजी से सामने सकता है, जिसमें चूक करने से आर्थिक संकुचन और वित्तीय संकट पैदा हो सकता है।

संकट का समाधान:

  • वित्तीय क्षेत्र का आकार कम करना: भारत में अत्यधिक आशावादी रुझान को रोकने के लिए, ऋण देने की क्षमता और उत्पादक ऋण की आवश्यकताओं के अनुरूप वित्तीय क्षेत्र का आकार कम करना आवश्यक है। निर्यात को बढ़ावा देने और मंदी के प्रभाव को कम करने के लिए रुपये को कमज़ोर करना भी महत्वपूर्ण है।
  • नीति परिवर्तन की चुनौतियाँ: हालाँकि, नीति में बदलाव की संभावना कम दिखाई देती है। भारतीय नीति निर्माताओं का मानना है कि वित्तीय क्षेत्र ही विकास को गति देगा, भले ही इसमें जोखिम हों। साथ ही, वे एक मजबूत विनिमय दर को प्राथमिकता देते हैं। इसी दौरान, आसन्न वित्तीय संकट गंभीर बेरोज़गारी के साथ मेल खाता है, जिससे कई लोगों को वापस कृषि क्षेत्र की ओर धकेला जा रहा है।
  • जोखिम मॉडल का पुनर्मूल्यांकन: बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) को असुरक्षित ऋणों के लिए अपने जोखिम मॉडल और ऋण देने की प्रथाओं का पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता हो सकती है। उन्हें ऋणदाता की साख का आकलन प्राथमिकता देना चाहिए और ऋण देने की गतिविधियों को बनाए रखते हुए जोखिम प्रबंधन के लिए वैकल्पिक रणनीतियों का पता लगाना चाहिए।
  • ऋण पोर्टफोलियो का विविधीकरण: वित्तीय संस्थान असुरक्षित ऋणों पर बढ़े हुए जोखिम भार के प्रभाव को संतुलित करने के लिए अपने ऋण पोर्टफोलियो का विविधीकरण कर सकते हैं। वे अपना ध्यान अधिक सुरक्षित ऋणों की ओर स्थानांतरित करने या अन्य ऋण-योग्य वर्गों को लक्षित करने पर दे सकते हैं।
  • 2008 की वैश्विक मंदी से सीख: भारत को 2008 की वैश्विक मंदी से सबक लेने की आवश्यकता है। इस मंदी ने मजबूत वित्तीय विनियमन, कठोर जोखिम मूल्यांकन और बढ़ी हुई पारदर्शिता की आवश्यकता को रेखांकित किया। इस संकट ने वैश्विक वित्तीय प्रणालियों की परस्पर निर्भरता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की आवश्यकता को भी रेखांकित किया। प्रभावी मौद्रिक नीति के माध्यम से आर्थिक स्थिरता बनाए रखने में केंद्रीय बैंकों की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी बल दिया गया।

निष्कर्ष:

  • भारत की वर्तमान ऋण वृद्धि की तीव्र गति चिंताजनक है और यह एक ऐसे वाहन के समान है जो अत्यधिक गति से आगे बढ़ रहा है, लेकिन जिसके ब्रेक काम नहीं कर रहे हैं। दुर्भाग्य से, नीति निर्माताओं और अभिजात वर्ग द्वारा इस अंतर्निहित जोखिम को कम करके आंका जा रहा है। यह संकट आर्थिक असमानता को और बढ़ा सकता है, जिसका बोझ कमजोर तबके को वहन करना होगा। इस स्थिति से निपटने के लिए, डिजिटल वित्तीय समावेश को वास्तविक आर्थिक विकास और समानता लाने वाला बनाया जाना चाहिए। साथ ही, ऋण वृद्धि को उत्पादक क्षेत्रों की आवश्यकताओं के अनुरूप लाना आवश्यक है। इस समेकित दृष्टिकोण के माध्यम से ही भारत अपने $5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था बनने के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न:

1.    भारत की वर्तमान तीव्र ऋण वृद्धि के संभावित आर्थिक परिणाम क्या हैं, और यह स्थिति अन्य देशों में पिछले वित्तीय संकटों की तुलना में कैसे है? (10 Marks, 150 Words)

2.    घरेलू ऋण और वित्तीय क्षेत्र की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भारतीय नीति निर्माता वित्तीय संकट को रोकने के लिए क्या उपाय कर सकते हैं, और इन उपायों को लागू करने की संभावना क्यों नहीं है? (15 Marks, 250 Words)

 

स्रोत- हिंदू

 

 

 

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