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Daily-current-affairs / 01 Mar 2023

भारत की अर्थव्यवस्था कितनी वैश्विक है? - समसामयिकी लेख

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कीवर्ड : विदेशी व्यापार घाटा, निर्यात और आयात, एलपीजी सुधार, संस्थागत सेटअप, नियामक ढांचा, आयात कवर, नीति स्थिरता, टैरिफ और गैर टैरिफ बाधा, विकासशील राष्ट्र, मंदी, रूस-यूक्रेन युद्ध।

संदर्भ :

  • पश्चिम में मंदी के बावजूद, वित्त वर्ष 24 में लगातार दूसरे वर्ष भारत के दूसरी सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में उभरने पर अब आम सहमति बनती नजर आ रही है।
  • इस संदर्भ में , शेष विश्व के संबंध में भारत के विकास पथ के आकलन की आवश्यकता है ।

मुख्य विचार:

  • निर्यात प्रोत्साहन और आयात प्रतिस्थापन को बढ़ावा देने के लिए 'मेक इन इंडिया' अभियान शुरू किया गया था।
  • पीएलआई योजना एक निश्चित मात्रा में निवेश करने के लिए लगभग 14 क्षेत्रों को एकमुश्त सब्सिडी प्रदान करती है जो वृद्धिशील उत्पादन से जुड़ी होती है जिसे अंततः 4 से 6 प्रतिशत पेबैक के साथ पुरस्कृत किया जाएगा।
  • यह आयात प्रतिस्थापन और निर्यात प्रोत्साहन, दोनों के लिए एक साधन रहा हैI
  • डब्लूटीओ को उम्मीद है कि 2023 में वैश्विक वस्तु व्यापार सिर्फ 1% बढ़ेगा, जबकि केयर को उम्मीद है कि 2023-24 में भारत का निर्यात 1.5% बढ़ सकता है।

भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए प्रमुख चिंताएं:

  • प्रश्न यह उठता है कि अगर हमने निर्यात में प्रगति की है तो विकास पर कुछ प्रतिकूल प्रभाव पड़ना चाहिए, क्योंकि विकसित दुनिया का एक हिस्सा मंदी की चपेट में आ गया है।
  • वैश्वीकृत दुनिया में, अन्य क्षेत्रों में स्पिलओवर प्रभाव हो सकता है, विशेष रूप से प्रत्यक्ष और पोर्टफोलियो दोनों मार्गों से विदेशी निवेश प्रवाह में, जो धीमा हो जाएगा।
  • पश्चिम में मंदी का मतलब यह भी होगा कि भारतीय श्रम के साथ-साथ कंप्यूटर से संबंधित सेवाओं की मांग में भी कमी आएगी।
  • जो हमारे भुगतान संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
  • विशेष रूप से पश्चिम में ब्याज दरों की नीति के आधार पर बाह्य क्षेत्र उधार ( ईसीबी ) और एनआरआई जमा भी प्रभावित होंगे ।
  • यूएस में बढ़ती दरें स्थानीय क्षेत्र में ईसीबी को महंगा और एनआरआई जमा को और अधिक आकर्षक बना देंगी, जिसका घरेलू फंडिंग प्रवाह पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

भारत की अर्थव्यवस्था का विश्लेषण:

  • विश्लेषण यह देखने के लिए किया जाता है कि पिछले दशक में जीडीपी ( मौजूदा कीमतों पर ) के साथ विभिन्न घटक कैसे परिवर्तित हुए हैं।
  • पिछले 10 वर्षों के आँकड़ों पर विचार किया गया हैI जिसके अंतर्गत पिछली दो पंचवर्षीय के औसत पर विचार किया गया है।

  • पिछले दशक के विश्लेषण से निम्नलिखित बिंदु उभर कर सामने आए हैं।
  • निर्यात और जीडीपी अनुपात समय के साथ कम हुआ है।
  • इस कहानी का सकारत्मक पक्ष यह है कि भारत का विकास मुख्य रूप से घरेलू कारकों से प्रेरित है और इसलिए निर्यात में गिरावट जीडीपी वृद्धि को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित नहीं करती है।
  • इस कहानी का नकारात्मक पक्ष यह है कि भले ही निर्यात पर बहुत अधिक जोर दिया गया है, पर उन क्षेत्रों पर विशेष जोर दिया गया है, जिनका तुलनात्मक लाभ है, लेकिन वे अपनी जगह बनाने में कामयाब नहीं हुए हैं।
  • इसलिए, जबकि निर्यात में स्थिर वृद्धि घरेलू विकास का पूरक होगी, हम निर्यात-आधारित अर्थव्यवस्था होने से बहुत दूर हैं।
  • जबकि पिछले पांच वर्षों में रुपये के संदर्भ में सॉफ्टवेयर प्राप्तियों की वृद्धि 56 प्रतिशत रही है, जीडीपी पिछड़ गई है और इसलिए सापेक्ष रूप में प्रगति नहीं हुयी है।
  • स्पष्ट रूप से यह वित्तवर्ष 24 में चिंता का विषय होगा यदि मंदी इन सेवाओं की मांग को प्रभावित करती है।
  • प्रेषण के अनुपात में गिरावट भी काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह 3.5 प्रतिशत से घटकर 2.8 प्रतिशत हो गया है।
  • यहां भी रुपये के लिहाज से दो पंचवर्षीय में औसत रेमिटेंस की वृद्धि लगभग 35 प्रतिशत रही है ।
  • यह गति जीडीपी वृद्धि के अनुरूप नहीं रही है, भले ही इसमें वृद्धि हो रही हो।
  • ऐसे में ग्लोबल स्लोडाउन की वजह से इस मार्जिन पर असर पड़ सकता है।
  • पिछले पांच वर्षों में रुपये के संदर्भ में 89 प्रतिशत की वृद्धि के साथ एफडीआई प्रवाह काफ़ी सकारात्मक रहा है ।
  • एफडीआई का प्रवाह पुश और पुल दोनों कारकों पर निर्भर करता है।
  • अर्थव्यवस्था के अच्छे प्रदर्शन और नीतिगत ढांचे के साथ पुल कारक मजबूत है।
  • हालांकि, पुश फैक्टर उपलब्ध निवेश योग्य फंडों की मात्रा पर निर्भर करेगा ।
  • इसलिए शुद्ध प्रभाव पर बारीकी से नजर रखने की आवश्यकता है।
  • पांच में से तीन वर्षों में नकारात्मक प्रवाह के कारण एफपीआई और जीडीपी का अनुपात तेजी से नीचे आया है।
  • भले ही ये प्रवाह न्यूनतम हों, लेकिन ये हमारे बाजारों को प्रभावित नहीं करेगा क्योंकि इन नकारात्मक प्रवाहों के बावजूद सूचकांकों में उछाल आया है।
  • घरेलू संस्थानों ने काफी हद तक बाह्य प्रभावों से बचाने का कार्य किया हैI
  • शुद्ध एनआरआई जमा दोनों अवधियों में औसत आधार पर नकारात्मक रहे हैं ।
  • इसका तात्पर्य यह है कि भुगतान संतुलन की दृष्टि से समर्थन के लिए उन पर निर्भर होने का कोई कारण नहीं है।
  • बाह्य क्षेत्र उधारी ( ईसीबी) में भी 1.4 प्रतिशत से 1 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है और ऐसे समय में यह आकर्षक नहीं होगा जब ब्याज दरें हर तरफ बढ़ रही हैं।

आगे की राह :

  • उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भारत अभी भी काफी हद तक घरेलू अर्थव्यवस्था बना हुआ है जो विकास को मजबूती प्रदान करता है।
  • लेकिन मंदी का बाह्य क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है जहां प्रवाह मार्जिन कम हो सकता है।
  • संचयी रूप से उनके पास रुपये पर दबाव डालने की क्षमता है जो आरबीआई द्वारा बारीकी से निगरानी करने के लिए एक चर बना रहेगा।
  • माल व्यापार असंतुलन से भारत के चालू खाता घाटे को कम कर सकते हैं और अर्थव्यवस्था की बाह्य कमजोरियों को सीमित कर सकते हैं, लेकिन नीति निर्माताओं को निर्यात-गहन क्षेत्रों में कारखानों के लिए आसान लैंडिंग सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की आवश्यकता है जो कि बड़े पैमाने पर नियोक्ता भी हैं ताकि वैश्विक निराशा घरेलू भावना को प्रभावित न कर सके ।

निष्कर्ष:

  • उभरती हुयी चुनौतियों का सामना करने के लिए बाज़ार की वास्तविकताओं पर नज़र रखना, भारत के लिए आने वाली उथल-पुथल से बचे रहने और वैश्विक व्यापार में अपनी भागीदारी का विस्तार करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

स्रोत - बिजनेस लाइन

सामान्य अध्ययन प्रश्नपत्र 3:
  • अर्थव्यवस्था पर उदारीकरण के प्रभाव; भारत का भुगतान संतुलन और व्यापार संतुलन।

मुख्य परीक्षा प्रश्न:

  • वैश्विक मंदी के समय में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए संभावित चिंताएँ क्या हैं? साथ ही, इन चिंताओं को दूर करने के उपाय सुझाइये। (150 शब्द)