सन्दर्भ:
भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में उल्लेखनीय वृद्धि और कृषि क्षेत्र के महत्वपूर्ण विस्तार के बावजूद, हाल के वर्षों में ग्रामीण मजदूरी में स्थिरता बनी हुई है। 2019-20 से 2023-24 तक, भारतीय अर्थव्यवस्था ने पिछले तीन वर्षों में 7.8% की उल्लेखनीय वृद्धि दर के साथ 4.6% की वार्षिक औसत वृद्धि दर हासिल की है। कृषि क्षेत्र ने भी इस पांच-वर्षीय अवधि में 4.2% की वृद्धि दर और हाल ही में 3.6% की वृद्धि दर प्राप्त की है। इसके बावजूद, इस आर्थिक प्रगति के साथ ग्रामीण मजदूरी में समानुपातिक वृद्धि देखने को नहीं मिली है। श्रम ब्यूरो के अनुसार, चालू वित्त वर्ष में ग्रामीण श्रमिकों के लिए वास्तविक मजदूरी वृद्धि दर केवल 0.5% रही है। आर्थिक विकास और मजदूरी ठहराव के बीच यह अंतर ग्रामीण श्रम बाजारों में महत्वपूर्ण मुद्दों को उजागर करता है।
ग्रामीण मजदूरी रुझान:
श्रम ब्यूरो 25 कृषि और गैर-कृषि व्यवसायों में दैनिक मजदूरी दरों का अवलोकन करता है, जो नाममात्र (मौजूदा मूल्य) और वास्तविक (मुद्रास्फीति-समायोजित) मजदूरी वृद्धि का गहन विश्लेषण प्रस्तुत करता है। प्रमुख आंकड़े निम्नलिखित हैं:
· समग्र ग्रामीण मजदूरी वृद्धि: वर्ष 2019-20 से 2023-24 के दौरान नाममात्र (nominal) मजदूरी वृद्धि औसतन 5.2% वार्षिक रही, जबकि वास्तविक मजदूरी वृद्धि -0.4% पर नकारात्मक रही।
· कृषि मजदूरी वृद्धि: कृषि क्षेत्र में नाममात्र मजदूरी वृद्धि 5.8% दर्ज की गई, लेकिन मुद्रास्फीति समायोजन के पश्चात वास्तविक वृद्धि मात्र 0.2% पर सीमित रही।
· वर्तमान राजकोषीय रुझान (अप्रैल-अगस्त 2023): इस अवधि में ग्रामीण मजदूरी की नाममात्र वृद्धि दर 5.4% तक पहुँची, परंतु वास्तविक मजदूरी वृद्धि 0.5% पर ही सीमित रही।
ग्रामीण मजदूरी के स्थिर होने के कारण:
1. ग्रामीण महिलाओं में श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) में वृद्धि:
o ग्रामीण महिला श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) 2018-19 में 26.4% से बढ़कर 2023-24 में 47.6% हो गई है। यह वृद्धि उज्ज्वला योजना, हर घर जल और स्वच्छ भारत अभियान जैसी सरकारी पहलों के प्रभाव से प्रेरित है, जिन्होंने घरेलू कार्य का बोझ कम कर महिलाओं को वेतनभोगी कार्य में संलग्न होने का अवसर दिया है।
o महिलाओं की इस बढ़ती भागीदारी ने ग्रामीण कार्यबल में वृद्धि की है, जिससे श्रम की आपूर्ति में अत्यधिक विस्तार हुआ है। इसका परिणाम यह हुआ कि श्रम आपूर्ति अधिक होने से मजदूरी दर पर दबाव बना है, क्योंकि अधिक लोग समान या कम वेतन पर कार्य करने के लिए उपलब्ध हैं।
2. कम श्रम -गहन आर्थिक विकास:
o श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि के बावजूद, अधिकांश महिलाएँ उच्च-भुगतान वाली गैर-कृषि क्षेत्रों के बजाय कृषि कार्य में संलग्न हैं। 2018-19 और 2023-24 के बीच ग्रामीण महिला रोजगार में कृषि की हिस्सेदारी 71.1% से बढ़कर 76.9% हो गई है।
o हाल के वर्षों में भारत का आर्थिक विकास अधिक पूंजी-प्रधान हो गया है, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहां प्रति इकाई उत्पादन के लिए अपेक्षाकृत कम श्रमिकों की आवश्यकता होती है। इस पूंजी-प्रधान विकास ने आर्थिक विस्तार को गति दी है, किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में श्रम की मांग को सीमित कर दिया है, जिससे मजदूरी वृद्धि पर दबाव बना हुआ है।
3. मांग में बदलाव और उपभोक्ता प्रभाव:
पूंजी-प्रधान और निवेश-संचालित वृद्धि का लाभ सीमेंट, स्टील और बुनियादी ढांचा जैसे क्षेत्रों को मिलता है, जबकि फास्ट-मूविंग उपभोक्ता वस्तुएँ (एफएमसीजी), घरेलू उपकरण और दोपहिया वाहन निर्माताओं के लिए इसका प्रभाव सीमित है। ये श्रम-प्रधान क्षेत्र उपभोग-आधारित वृद्धि पर निर्भर करते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में मजदूरी वृद्धि व खपत में कमी होने पर प्रभावित होते हैं।
आर्थिक विकास के साथ पर्याप्त रोजगार सृजन न होने के कारण:
· विऔद्योगीकरण: भारत में समयपूर्व विऔद्योगीकरण हो रहा है, जिसका अर्थ है कि सकल घरेलू उत्पाद और रोजगार में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी विकसित देशों की तुलना में अपेक्षाकृत निम्न आय स्तर पर घट रही है।
· कौशल अंतर का मुद्दा: नियोक्ताओं द्वारा अपेक्षित कौशल और श्रमिकों के पास उपलब्ध कौशल में एक महत्वपूर्ण असमानता विद्यमान है। "कौशल भारत" जैसी पहलों के बावजूद, ये कार्यक्रम अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने में असफल रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप बेरोजगारी और अल्परोजगारी की उच्च दरें उत्पन्न हुई हैं।
· अनौपचारिक रोजगार का प्रचलन: भारत के 90% से अधिक कार्यबल का संबंध अनौपचारिक क्षेत्र से है, जोकि कम उत्पादकता, नौकरी की सुरक्षा के अभाव और सीमित सामाजिक सुरक्षा जैसे कारकों से प्रभावित है। यद्यपि गिग इकॉनमी ने नए रोजगार अवसर प्रदान किए हैं, किंतु इसमें स्थिरता और करियर में उन्नति की संभावनाओं का अभाव है, जिससे श्रमिकों में नौकरी की असुरक्षा की भावना और बढ़ गई है।
· रोजगार सृजन और बढ़ती कार्यशील जनसंख्या की चुनौती: प्रतिवर्ष लगभग 1.2 करोड़ नए लोग कार्यबल में प्रवेश करते हैं। जनसांख्यिकीय लाभांश का पूर्ण उपयोग करने और इसे जनसांख्यिकीय दायित्व में परिवर्तित होने से रोकने के लिए भारत को सालाना 1 से 1.2 करोड़ नौकरियों का सृजन करना आवश्यक है। किंतु वर्तमान में रोजगार सृजन की गति इस आवश्यकता से काफी कम है, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक अशांति और आर्थिक चुनौतियों की आशंका उत्पन्न हो रही है।
· एमएसएमई में 'मिसिंग मिडिल' : भारत का औद्योगिक ढांचा बहुत छोटी फर्मों और बड़ी कंपनियों के बीच विभाजित है, जिसमें मध्यम आकार के उद्यमों की कमी है जोकि आम तौर पर रोजगार पैदा करने में सबसे प्रभावी होते हैं। रोजगार सृजन के लिए महत्वपूर्ण एमएसएमई क्षेत्र, विमुद्रीकरण और कोविड-19 महामारी के बाद संघर्ष कर रहा है।
· एआई और स्वचालन के कारण नौकरी का नुकसान : स्वचालन और एआई का प्रयोग नौकरी बाजार को नया आकार दे रहा है, जिससे 2030 तक भारत के 9% कार्यबल के विस्थापित होने की संभावना है। ये प्रगति आमतौर पर अत्यधिक कुशल कार्यबल की मांग करती है, जिससे कम कुशल श्रमिकों के बीच बेरोजगारी दर बढ़ सकती है।
· उद्योग की आवश्यकताओं और शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में असमानता: भारत की शिक्षा प्रणाली वर्तमान नौकरी बाजार की आवश्यकताओं के अनुसार छात्रों को पर्याप्त रूप से तैयार नहीं कर पाती है। 2019 में रोजगार योग्यता के आँकड़ों के अनुसार, केवल 47% स्नातक ही उद्योगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में सक्षम पाए गए थे। यह असमानता अकुशलता की स्थिति को जन्म देती है, जहाँ बड़ी संख्या में नौकरी की तलाश करने वाले उम्मीदवार उद्योग की विशिष्ट मांगों के अनुरूप कौशल से वंचित रहते हैं।
आर्थिक विकास को अधिक श्रम-प्रधान बनाने की रणनीतियाँ:
1. मज़दूरी-किराया अनुपात कम करना: श्रम-प्रधान विकास को प्रोत्साहित करने के लिए नीतियों को मज़दूरी-किराया अनुपात (पूंजी की लागत) कम करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिससे पूंजी के सापेक्ष श्रम सस्ता हो सके। हालाँकि, भारत में मज़दूरी को कम करना संभव नहीं है, क्योंकि मौजूदा स्तर पहले से ही निम्न है।
2. श्रम-प्रधान क्षेत्रों पर ध्यान : निर्माण, व्यापार, परिवहन और वस्त्र जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों में लगभग 240 मिलियन लोग काम करते हैं। यदि इन क्षेत्रों में मजदूरी-किराया अनुपात कम करने के लिए अधिक संसाधन दिए जाएँ, तो इन्हें लाभ होगा।
3. रोजगार-संबद्ध प्रोत्साहन: श्रम-प्रधान क्षेत्रों में रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) के समान एक मजबूत रोजगार-संबद्ध प्रोत्साहन (ईएलआई) योजना का कार्यान्वयन आवश्यक है।
4. श्रम बाजार की कठोरताओं को संबोधित करना : विभिन्न राज्यों से तुलनात्मक साक्ष्य प्राप्त करके श्रम कानूनों को सरल बनाना और अनुपालन बोझ को कम करना, जोकि वर्तमान में रोजगार वृद्धि में बाधा उत्पन्न करता है।
5. पूंजी की लागत बढ़ाना: भारत में कृत्रिम रूप से कम ब्याज दरों के कारण सरकार द्वारा नियंत्रित कम पूंजी लागत वास्तविक कमी को दर्शाने में विफल रहती है। पूंजी लागत बढ़ाने से अधिक श्रम-गहन क्षेत्रों की ओर ध्यान केंद्रित हो सकता है, जिससे रोजगार सृजन को बढ़ावा मिलेगा।
6. विनिमय दरों को समायोजित करना: आयात को अधिक महंगा और निर्यात को सस्ता बनाने के लिए विनिमय दरों को समायोजित किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष:
भारत की आर्थिक वृद्धि अभी तक ग्रामीण मजदूरों, विशेषकर महिलाओं के लिए पर्याप्त वेतन वृद्धि में नहीं बदल पाई है। महिला श्रम शक्ति की बढ़ती भागीदारी, पूंजी-गहन विकास और ग्रामीण क्षेत्रों में कम गैर-कृषि नौकरी की उपलब्धता सभी ने इस वेतन विरोधाभास में योगदान दिया है। हालांकि आय हस्तांतरण योजनाएं अस्थायी राहत प्रदान करती हैं, ग्रामीण मजदूरी में निरंतर वृद्धि के लिए आवश्यक है कि कृषि से परे विविध रोजगार अवसरों का सृजन किया जाए। इसके साथ ही, श्रम-गहन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना और यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि आर्थिक विकास सभी क्षेत्रों में समावेशी और लाभकारी हो।
यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न: ग्रामीण भारत में श्रम बाजार की आवश्यकताओं और कार्यबल कौशल के बीच की अंतर को पाटने में कौशल विकास कार्यक्रमों की भूमिका का विश्लेषण करें। अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में इन कार्यक्रमों को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? |