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Daily-current-affairs / 20 Feb 2025

डिजिटल सामग्री नियमन: नैतिकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन

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सन्दर्भ : हाल ही में यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया से जुड़े मामले ने भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, डिजिटल सामग्री के विनियमन और अश्लीलता की कानूनी व्याख्याओं को लेकर एक राष्ट्रीय चर्चा को जन्म दिया है। सुप्रीम कोर्ट के हालिया हस्तक्षेप ने जहां उन्हें गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया, वहीं अनुचित भाषा के उपयोग पर फटकार भी लगाई। यह प्रकरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं, डिजिटल युग में अश्लीलता कानूनों की प्रासंगिकता और सोशल मीडिया के प्रभावशाली व्यक्तियों की सामाजिक ज़िम्मेदारियों जैसे महत्वपूर्ण कानूनी व नैतिक प्रश्न उठाता है।

अश्लीलता की परिभाषा और कानूनी अस्पष्टता :

भारतीय कानूनी प्रणाली लंबे समय से अश्लीलता को परिभाषित करने और इसे विनियमित करने की जटिलताओं से जूझ रही है। ऐतिहासिक रूप से, अश्लील सामग्री की व्याख्या नैतिक रूढ़िवादिता और प्रगतिशील कानूनी सिद्धांतों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास करती रही है। यूट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया और डिजिटल कंटेंट क्रिएटर समय रैना के विरुद्ध भारतीय न्याय संहिता (BNS, 2023) की धारा 294 तहत कई एफआईआर दर्ज की गई हैं। इन मामलों में आरोप लगाया गया है कि उनकी सामग्री "कामुक" (Lascivious) है तथा इसमें दर्शकों को "भ्रष्ट" (Corrupt) एवं "विकृत" (Deprave) करने की क्षमता है।

हालांकि, इस प्रकरण ने एक महत्वपूर्ण कानूनी चुनौती को उजागर किया है—भारत में अश्लीलता की कानूनी परिभाषा का अभाव। इस अस्पष्टता के कारण कानूनी प्रवर्तन में असंगति देखी गई है, जिससे सार्वजनिक नैतिकता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करना कठिन हो गया है।

अश्लीलता को नियंत्रित करने वाले प्रमुख कानूनी प्रावधान:

1.     भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 – धारा 294

o    इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित किसी भी माध्यम से अश्लील सामग्री के निर्माण, वितरण या प्रदर्शन को अपराध घोषित करता है।

o    अश्लीलता को ऐसी सामग्री के रूप में परिभाषित करता है जो "कामुक या कामुक रुचि को आकर्षित करने वाली" हो या जिसमें उपभोक्ताओं को "दुराचारी और भ्रष्ट" (Deprave and corrupt) बनाने की क्षमता हो।

o    सजा : पहली बार अपराध करने पर दो वर्ष तक का कारावास और 5,000 रुपये तक का जुर्माना हो सकता है।

2.     सूचना प्रौद्योगिकी (IT) अधिनियम, 2000 – धारा 67

o    यह धारा डिजिटल प्लेटफॉर्म में प्रसारित अश्लील सामग्री को विनिमियत करती है।

o    पहली बार अपराध करने पर तीन साल तक की कैद और 5 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है, जो इसे भारतीय न्याय संहिता की धारा 294 की तुलना में अधिक कठोर बनाता है।

हालांकि, इन कानूनों का उद्देश्य सार्वजनिक शालीनता बनाए रखना है, लेकिन उनकी अस्पष्ट परिभाषाएँ कानूनों के मनमाने प्रवर्तन को बढ़ावा देती हैं। इसके परिणामस्वरूप दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाती है और नैतिक पुलिसिंग को लेकर चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।

अश्लीलता कानूनों का न्यायिक विकास

भारतीय न्यायालयों ने अश्लीलता निर्धारित करने के लिए पहले हिकलिन परीक्षण (Hicklin Test) को अपनाया, जिसे बाद में सामुदायिक मानक परीक्षण (Community Standards Test) द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। यह परिवर्तन दर्शाता है कि न्यायपालिका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नैतिक मूल्यों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास कर रही है।

1. हिकलिन टेस्ट (1868) और भारत में इसका अनुप्रयोग

रेजिना बनाम हिकलिन (1868) के फैसले में विकसित हिकलिन परीक्षण के अनुसार, यदि किसी सामग्री का कोई भी हिस्सा व्यक्तियों को "भ्रष्ट या गुमराह करने की प्रवृत्ति" रखता है, तो उसे अश्लील माना जाएगा। यह संपूर्ण सामग्री का आकलन करने के बजाय उसके कुछ विशिष्ट अंशों पर केंद्रित था। इसका अर्थ यह है कि सेंसरशिप लागू करने के लिए अत्यंत कठोर मानदंडों की आवश्यकता नहीं थी; बल्कि न्यूनतम आधार पर भी किसी रचना को प्रतिबंधित किया जा सकता था।

भारतीय न्यायालयों ने रंजीत डी. उदेशी बनाम महाराष्ट्र राज्य (1964) मामले में इस परीक्षण को अपनाया, जिसके परिणामस्वरूप "लेडी चैटर्लीज़ लवर" उपन्यास को अश्लीलता के आधार पर प्रतिबंधित कर दिया गया।

इस परीक्षण के  कठोर दृष्टिकोण ने रचनात्मक और पत्रकारिता संबंधी अभिव्यक्ति को प्रतिबंधित कर दिया।

2. सामुदायिक मानक परीक्षण में परिवर्तन (2014)

समकालीन सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए, अविक सरकार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2014) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हिकलिन परीक्षण को अस्वीकार कर सामुदायिक मानक परीक्षण (Community Standards Test) को अपनाया। इस परीक्षण के तहत:

        सामग्री का मूल्यांकन पुराने नैतिक मानकों के बजाय आधुनिक सामाजिक संदर्भ में किया जाता है।

        संपूर्ण कृति  पर विचार किया जाता है, न कि किसी विशिष्ट अंश  को अलग से देखा जाता है।

        यह स्वीकार किया गया कि जो सामग्री पहले अश्लील मानी जाती थी, वह बदलते सामाजिक मूल्यों के कारण अब वैसी नहीं मानी जा सकती। इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सार्वजनिक शालीनता की अधिक लचीली और समकालीन व्याख्या सुनिश्चित होती है।

सुप्रीम कोर्ट के इस दृष्टिकोण ने डिजिटल सामग्री पर अश्लीलता कानूनों के लागू होने के तरीके को प्रभावित किया है। हालांकि, इस कानूनी विकास के बावजूद, चुनिंदा घटनाएँ अब भी जारी हैं, जहाँ इन कानूनों का सार्वजनिक हस्तियों के खिलाफ चयनात्मक रूप से उपयोग किया जाता है।

अश्लीलता बनाम मुक्त भाषण: संवैधानिक विचार

1. अनुच्छेद 19(1)(a): वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। हालाँकि, यह अधिकार पूर्ण रूप से असीमित नहीं है और अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों के अधीन है। इनमें निम्नलिखित आधारों पर लगाए गए प्रतिबंध शामिल हैं:

        शालीनता और नैतिकता

        सार्वजनिक व्यवस्था

        मानहानि और अपराध के लिए उकसाना

न्यायपालिका ने निरंतर यह मत दिया है कि किसी सामग्री की अश्लीलता का मूल्यांकन समकालीन सामाजिक मानकों (contemporary community standards) के आधार पर किया जाना चाहिए, कि मनमानी नैतिक पुलिसिंग के माध्यम से।

भारत के अश्लीलता कानून को प्रभावित करने वाले उल्लेखनीय मामले:

कई मामलों ने अश्लीलता की कानूनी व्याख्या को आकार दिया है, जिससे अक्सर कलात्मक स्वतंत्रता और सार्वजनिक नैतिकता के बीच की रेखाएं धुंधली हो जाती हैं।

1.     उर्फी जावेद विवाद (2023) अभिनेता उर्फी जावेद को सार्वजनिक रूप से खुले कपड़े पहनने के कारण कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ा। इस मामले ने अश्लीलता कानूनों के दायरे में नैतिक पुलिसिंग से जुड़ी चिंताओं को उजागर किया।

2.     रणवीर सिंह का न्यूड फोटोशूट (2022) - रणवीर सिंह पर आईपीसी की धारा 292 और 293 के तहत मामला दर्ज किया गया था। आलोचकों ने तर्क दिया कि इस तरह की कानूनी कार्रवाई कलात्मक स्वतंत्रता को बाधित कर सकती है।

3.     मिलिंद सोमन की समुद्र तट तस्वीर (2020) - सोमन पर नग्न अवस्था में समुद्र तट पर दौड़ने की तस्वीर अपलोड करने का आरोप लगाया गया था। यह मामला अश्लीलता कानूनों के असंगत प्रवर्तन को दर्शाता है।

4.     रिचर्ड गेरे- शिल्पा शेट्टी विवाद (2007) - एड्स जागरूकता कार्यक्रम के दौरान अभिनेता रिचर्ड गेरे ने शिल्पा शेट्टी के गाल पर चुंबन लिया, जिसके परिणामस्वरूप उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। इस घटना ने अश्लीलता कानूनों के संभावित दुरुपयोग और सांस्कृतिक संदर्भों में उनकी व्याख्या की भिन्नता को उजागर किया।

5.     किस ऑफ लव प्रोटेस्ट (2014) - नैतिक पुलिसिंग के खिलाफ "किस ऑफ लव" अभियान के दौरान अश्लीलता कानूनों के तहत सार्वजनिक गिरफ्तारियाँ की गईं। इसने सार्वजनिक नैतिकता की व्यक्तिपरक व्याख्या  की बहस को जन्म दिया।

सार्वजनिक नैतिकता को आकार देने में डिजिटल मीडिया की भूमिका

सोशल मीडिया ने सूचना के प्रसार के तरीके में क्रांतिकारी बदलाव किया है, जिससे पारंपरिक समाचार माध्यमों के लंबे समय से चले आ रहे वर्चस्व को चुनौती मिली है। इसने विविध दृष्टिकोणों तक व्यापक पहुँच को संभव बनाया, लेकिन साथ ही गलत सूचना के तीव्र प्रसार को भी बढ़ावा दिया, जिससे जनता को गुमराह करने का खतरा बढ़ गया है।

डिजिटल युग में सोशल मीडिया प्रभावशाली व्यक्तियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई है, क्योंकि वे जनमत को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। उनकी सामग्री लोगों की सोच, व्यवहार और जीवनशैली के चुनाव को प्रभावित करती है, जिसका प्रभाव व्यक्तिगत आदतों से लेकर व्यापक सामाजिक मूल्यों तक देखा जा सकता है। परिणामस्वरूप, वे सार्वजनिक नैतिकता और सामाजिक धारणाओं को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाते हैं।

1.     असत्यापित सामग्री का बढ़ता प्रभाव:

पारंपरिक पत्रकारिता संपादकीय निरीक्षण और तथ्य-जांच तंत्र (Fact-checking mechanisms) के माध्यम से संचालित होती है, लेकिन सोशल मीडिया में इस तरह की मानकीकृत जवाबदेही (Standardized accountability) का अभाव है। सूचना की कठोर जाँच-पड़ताल होने के कारण, गलत सूचनाओं का अनियंत्रित प्रसार हुआ है, जिससे विश्वसनीय समाचारों और मनगढ़ंत सूचनाओ के बीच अंतर कर पाना कठिन हो गया है।

2.     बहसों का ध्रुवीकरण:

प्रारंभ में सोशल मीडिया खुले संवाद और स्वस्थ बहस का मंच हुआ करता था, वह अब अक्सर वैचारिक संघर्षों और ध्रुवीकरण का केंद्र बन गया है। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म में चरमपंथी विचारों को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति देखी गई है, जिससे रचनात्मक संवाद के बजाय सामाजिक विभाजन और विचारधारात्मक ध्रुवीकरण को बढ़ावा मिलता है।

परिवर्तन के साधन के रूप में डिजिटल मीडिया:

डिजिटल सामग्री को सार्वजनिक नैतिकता के लिए ख़तरा मानने के बजाय, पारंपरिक मीडिया को अपनी अखंडता बनाए रखते हुए नए प्लेटफ़ॉर्म को एकीकृत करने और विकसित होने की आवश्यकता है। डिजिटल परिदृश्य केवल जिम्मेदार सामग्री निर्माण और वितरण की संभावनाएँ प्रदान करता है, बल्कि अधिक सूचित सार्वजनिक चर्चा को भी बढ़ावा दे सकता है।

      पारंपरिक मीडिया में डिजिटल उपकरणों का समावेश: पारंपरिक मीडिया को अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने और तथ्य-आधारित रिपोर्टिंग को प्रभावी बनाने के लिए डिजिटल उपकरणों को अपनाना चाहिए। इससे वायरल गलत सूचनाओं का मुकाबला करने और तथ्यात्मक रिपोर्टिंग को बढ़ावा देने में सहायता मिलेगी।

      डिजिटल और पारंपरिक मीडिया के बीच की खाई को पाटना : एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए, जिसमें पारंपरिक पत्रकारिता की विश्वसनीयता को डिजिटल मीडिया की व्यापक पहुँच के साथ मिलाया जाए। इससे एक अधिक विश्वसनीय और पारदर्शी सूचना पारिस्थितिकी तंत्र (Information ecosystem) का निर्माण किया जा सकता है।

      डिजिटल सामग्री के सामाजिक प्रभाव का विश्लेषण : यह समझना आवश्यक है कि विभिन्न प्रकार की डिजिटल सामग्री जनमत और सामाजिक व्यवहार को किस प्रकार प्रभावित करती है। यह विश्लेषण जिम्मेदार मीडिया प्रथाओं को विकसित करने में सहायक होगा, जिससे सूचना का प्रसार अधिक संतुलित और निष्पक्ष हो सके।

डिजिटल युग में मीडिया साक्षरता का विकास:

डिजिटल मीडिया सार्वजनिक संवाद को आकार दे रहा है, जिससे  सूचनाओ को समझने और सत्यापित करने की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इसी कारण मीडिया साक्षरता एक आवश्यक कौशल बन गई है।

नागरिकों को निम्नलिखित के लिए सुसज्जित होना चाहिए:

        भ्रामक सामग्री की पहचान करना : गलत सूचना के निर्माण और प्रसार की प्रक्रिया को समझना लोगों को किसी भी कथन को बिना जांचे-परखे स्वीकार करने के बजाय उसकी सत्यता पर प्रश्न उठाने में सक्षम बनाता है।

        स्रोतों की विश्वसनीयता का मूल्यांकन करना : सामग्री की उत्पत्ति और मंशा को समझने से तथ्यात्मक रिपोर्टिंग और एजेंडा-प्रेरित सामग्री के बीच अंतर करने में सहायता मिलती है।

        पूर्वाग्रहों और चालाकीपूर्ण युक्तियों को पहचाना : सामाजिक मंच किस प्रकार सूचना को प्रस्तुत करता है, इसके बारे में जागरूक होने से विषय-वस्तु के उपभोग के लिए अधिक आलोचनात्मक और सूचित दृष्टिकोण अपनाने की अनुमति मिलती है।

प्रमुख मीडिया साक्षरता सिद्धांत:

  यूनेस्को के अनुसार, समाचार को तथ्यात्मक रिपोर्टिंग पर आधारित होना चाहिए। मनगढ़ंत सामग्री, चाहे वह कितनी भी व्यापक रूप से साझा की जाए, उसे समाचार के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।

  गलत सूचना को बिना जांचे स्वीकार करने से बचने के लिए मीडिया संदेशों के स्रोत, उनकी विश्वसनीयता और संभावित पूर्वाग्रहों को समझना आवश्यक है। यह सूचित और तर्कसंगत निर्णय लेने में सहायता करता है।

  जिम्मेदार ऑनलाइन व्यवहार को बढ़ावा देना, डिजिटल अधिकारों के प्रति जागरूकता और सामग्री के साथ नैतिक रूप से जुड़ाव एक समावेशी और जागरूक डिजिटल समाज के निर्माण में सहायक होता है।

निष्कर्ष:

आईसीटी (सूचना और संचार प्रौद्योगिकी) के नवाचारों में परिवर्तनकारी क्षमता तो है, लेकिन वे हमेशा सत्यापित और प्रामाणिक जानकारी के प्रसार को सुनिश्चित नहीं करते। इसके विपरीत, ये अक्सर गलत सूचनाओं के अनियंत्रित प्रसार को सक्षम करते हैं, जिससे एक खुले और बहुलतावादी समाज की भलाई खतरे में पड़ जाती है।

जैसा कि एंग्लो-आयरिश व्यंग्यकार जोनाथन स्विफ्ट ने सदियों पहले ठीक ही कहा था:
"झूठ उड़ता है और सत्य लंगड़ाता हुआ उसके पीछे आता है।"

इससे निपटने के लिए मीडिया साक्षरता, तथ्य-जांच तंत्र (fact-checking mechanisms) और अल्गोरिदमिक विनियमन, कानूनी और नीतिगत हस्तक्षेप  जैसे उपाय आवश्यक हैं।

मुख्य प्रश्न : भारत में सामाजिक मानदंडों को आकार देने में सोशल मीडिया प्रभावितों की भूमिका का मूल्यांकन करें। रचनात्मक अभिव्यक्ति और सार्वजनिक शालीनता के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए उन्हें कौन सी कानूनी और नैतिक ज़िम्मेदारियाँ निभानी चाहिए?


Source: The Indian Express