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Daily-current-affairs / 17 Mar 2025

भारत में परिसीमन: प्रतिनिधित्व और संघवाद पर संवैधानिक बहस

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सन्दर्भ : परिसीमन (Delimitation) निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुनः निर्धारित करने की एक संवैधानिक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य संसद और राज्य विधानसभाओं में न्यायसंगत और समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। हालांकि, वर्तमान परिसीमन (जोकि 2026 में प्रस्तावित है) भारत में उत्तर और दक्षिण के बीच जनसांख्यिकीय असंतुलन के कारण यह विषय विवादास्पद बनता जा रहा है। इस प्रक्रिया ने संघीय संतुलन, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और राष्ट्रीय एकता से जुड़े गंभीर मुद्दों पर बहस को जन्म दिया है।

दक्षिणी राज्य, जिन्होंने बेहतर सामाजिक-आर्थिक विकास और प्रभावी परिवार नियोजन नीतियों के कारण धीमी जनसंख्या वृद्धि दर्ज की है, इस बात को लेकर आशंकित हैं कि जनसंख्या-आधारित पुनर्वितरण उनके संसदीय प्रभाव को कम कर सकता है। इसके विपरीत, उत्तर भारतीय राज्यों में अपेक्षाकृत उच्च जनसंख्या वृद्धि हुई है, जिससे उन्हें अधिक संसदीय सीटें प्राप्त होने की संभावना है। यह असमानता लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और भारत के संघीय ढांचे की दीर्घकालिक अखंडता के बारे में बुनियादी सवाल उठाती है।

परिसीमन की आवश्यकता:

सभी निर्वाचन क्षेत्रों में समान जनसंख्या आकार बनाए रखते हुए निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए परिसीमन किया जाता है। यह निम्नलिखित द्वारा शासित होता है:

·        अनुच्छेद 82 : यह अनिवार्य करता है कि प्रत्येक जनगणना के बाद संसद को जनसंख्या परिवर्तन के आधार पर राज्यों के बीच लोकसभा सीटों के आवंटन को पुनः समायोजित करना होगा।

·        अनुच्छेद 81 : लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या को 550 (राज्यों से 530 और केंद्र शासित प्रदेशों से 20) तक सीमित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि राज्यों में जनसंख्या के अनुपात में सीटों का अनुपात यथासंभव एक समान हो।

इस प्रक्रिया का उद्देश्य "एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य" के लोकतांत्रिक सिद्धांत को बनाए रखना है। हालांकि, जनसंख्या वृद्धि में क्षेत्रीय असमानताओं के कारण परिसीमन एक राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा बन गया है।

भारत में परिसीमन का इतिहास:

  • 1976 से पूर्व : 1951, 1961 और 1971 की जनगणना के बाद परिसीमन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप संसद और राज्य विधानसभाओं में सीटों का पुनर्वितरण हुआ।
  • 42वां संशोधन (1976) : आपातकाल (Emergency) के दौरान, संसद ने 2001 की जनगणना तक सीटों की कुल संख्या को स्थिर रखने का निर्णय लिया। इसका उद्देश्य था कि कम जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों, विशेष रूप से दक्षिणी राज्यों, को परिवार नियोजन नीतियों को लागू करने के कारण प्रतिनिधित्व खोने से बचाया जा सके।
  • 2001 परिसीमन : 2001 की जनगणना के आधार पर निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं को पुनः निर्धारित किया गया, लेकिन दक्षिणी राज्यों के विरोध के कारण संसदीय सीटों की कुल संख्या अपरिवर्तित रही। इन राज्यों को भय था कि उनकी संसदीय शक्ति (Political Influence) में कमी सकती है।

प्रतिनिधित्व पर परिसीमन का प्रभाव:

जनसंख्या आधारित सीटों का पुनर्आबंटन:

यदि 2026 का परिसीमन नवीनतम जनगणना (Census) के आंकड़ों पर आधारित होता है, तो उत्तर भारत के उच्च जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों में संसदीय प्रतिनिधित्व में उल्लेखनीय वृद्धि होगी, जबकि दक्षिणी राज्य, जिन्होंने प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण नीतियाँ अपनाई हैं, अपनी सीटें खो सकते हैं या तुलनात्मक रूप से कम वृद्धि देख सकते हैं।

  • 2025 की जनसंख्या अनुमान के आधार पर लोकसभा सीटों में अनुमानित परिवर्तन
    • उत्तर प्रदेश (उत्तराखंड सहित) : 85 से 250 सीटें
    • बिहार (झारखंड सहित) : 25 से बढ़कर 82 सीटें
    • मध्य प्रदेश : सीटों में उल्लेखनीय वृद्धि
    • राजस्थान : सीटों में पर्याप्त वृद्धि
    • तमिलनाडु : 39 से बढ़कर 76 सीटें (तुलनात्मक रूप से कम)
    • केरल : 20 से बढ़कर 36 सीटें
वर्तमान परिदृश्य में, कुछ राज्यों में एक सांसद के लिए 32 लाख से अधिक मतदाता हैं, जबकि केरल जैसे राज्यों में यह आंकड़ा केवल 18 लाख है। इससे वोटिंग शक्ति में असंतुलन (Voting Power Imbalance) उत्पन्न होता है। हालांकि, इस विसंगति को ठीक करने के लिए पुनर्वितरण आवश्यक है, लेकिन इसका लाभ उत्तर भारतीय राज्यों को अधिक मिलने की संभावना है, जिससे संघीय संतुलन और राजनीतिक शक्ति के पुनर्वितरण पर गंभीर प्रश्न उठते हैं।
लोकसभा की शक्ति में संभावित वृद्धि:
  • 2025 की जनसंख्या अनुमान के आधार पर लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 1,400 तक बढ़ सकती है। हालाँकि, नवनिर्मित संसद भवन में केवल 888 सीटें उपलब्ध हैं, जिससे आनुपातिक वृद्धि की संभावना सीमित है।
  • सीट आवंटन की एक वैकल्पिक विधि अपनाई जा सकती है, लेकिन फिर भी दक्षिणी राज्यों को उत्तर की तुलना में कम सीटें मिलेंगी। इससे उनके घटते राजनीतिक प्रभाव और संघीय असंतुलन को लेकर चिंताएँ बढ़ सकती हैं।

परिसीमन पर राजनीतिक और संघीय चिंताएं:

1. संघीय संतुलन और प्रतिनिधित्व को खतरा:
  • दक्षिणी राज्य, विशेष रूप से तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक, तर्क देते हैं कि जनसंख्या वृद्धि के आधार पर परिसीमन से संसद में उनका प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा, भले ही उनका आर्थिक योगदान और शासन दक्षता बेहतर हो।
  • इसके परिणामस्वरूप संघीय संतुलन बनाए रखने के लिए परिसीमन को स्थगित करने की मांग बढ़ रही है।
  • तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने परिसीमन को एक "खतरा" बताया है
2. क्षेत्रीय राजनीतिक प्रभाव:
·         परिसीमन के कारण राजनीतिक शक्ति उत्तर भारत की ओर स्थानांतरित हो सकती है, जिससे इस क्षेत्र में मजबूत आधार वाले दलों को लाभ होगा, जबकि दक्षिण भारत के क्षेत्रीय दल कमजोर हो सकते हैं।
·         इससे राष्ट्रीय नीति निर्माण में असंतुलन पैदा होगा, जहां उत्तरी राज्य संसदीय निर्णयों पर हावी हो सकते हैं, जिससे दक्षिणी राज्यों से संबंधित मुद्दे हाशिए पर चले जाने का खतरा रहेगा।
3. सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक विभाजन:

परिसीमन से तीन प्रमुख विभाजन रेखाओं के साथ विद्यमान क्षेत्रीय विभाजन और मजबूत हो सकता है:

·         सांस्कृतिक विभाजन रेखा:

o    हिंदी भाषी उत्तर भारत और गैर-हिंदी भाषी दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के बीच भाषाई विभाजन स्वतंत्रता के बाद से ही मौजूद है।

    • भाषाई राज्यों की मांग और हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में थोपने की नीति ने इस विभाजन को कम करने में मदद की थी, लेकिन परिसीमन से यह तनाव फिर से बढ़ सकता है।

·         आर्थिक विभाजन रेखा:

    • पिछले तीन दशकों में आर्थिक विकास दक्षिण और पश्चिम भारत के पक्ष में रहा है, जबकि उत्तर और पूर्वी भारत पिछड़ गया है।
    • दक्षिणी राज्यों का तर्क है कि संसाधन आवंटन और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में जनसंख्या के बजाय आर्थिक योगदान को भी एक कारक माना जाना चाहिए।

·         राजनीतिक विभाजन रेखा:

o   एक राजनीतिक दल के वर्चस्व ने उत्तर-दक्षिण राजनीतिक विभाजन को बढ़ा दिया है। यह पार्टी उत्तर भारत में प्रभावशाली है, लेकिन तमिलनाडु और केरल जैसे कई दक्षिणी राज्यों में हाशिए पर है। परिसीमन से उन क्षेत्रों में सीटों की संख्या बढ़ सकती है, जहां यह पार्टी मजबूत है, जिससे उसका राजनीतिक प्रभुत्व और अधिक सशक्त हो सकता है।

ये विभाजन रेखाएं पूरी तरह से मेल नहीं खातीं, लेकिन अक्सर हिंदी पट्टी और दक्षिण भारत को आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बहसों में विपरीत पक्षों पर खड़ा कर देती हैं।

दक्षिणी राज्यों की चिंताएं और परिसीमन पर रोक की मांग:

  • तमिलनाडु में सर्वदलीय प्रस्ताव के तहत राष्ट्रीय एकता और संघवाद की रक्षा के लिए परिसीमन को 30 वर्षों के लिए स्थगित करने की मांग की गई है।
  • गोवा और अरुणाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्यों के लिए विशेष प्रावधानों की तरह, दक्षिणी राज्य सीटों के पुनर्आबंटन पर स्थायी रोक लगाने की मांग कर रहे हैं।
  • अंतर्निहित संघीय अनुबंध अंतर्निहित संघीय अनुबंध" (Implicit Federal Contract) की अवधारणा उभरकर सामने आई है, जोकि इस विचार को रेखांकित करती है कि भारत का संघीय ढांचा केवल जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि क्षेत्रीय समानता को ध्यान में रखते हुए गठित हुआ था।
  • इस संघीय अनुबंध को स्वीकार करने का अर्थ होगा निम्नलिखित पर बहस को स्थायी रूप से बंद करना:

o    जनसंख्या-आधारित सीट आवंटन।

o    कर अंशदान के आधार पर संसाधनों का वितरण।

o    ऐसा संतुलन जिसमें उत्तरी राज्यों को अधिक सीटें मिलें, जबकि दक्षिणी राज्यों को वित्तीय लाभ मिलता रहे।

निष्कर्ष:

परिसीमन पर बहस लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और संघीय स्थिरता के बीच तनाव को उजागर करती है। "एक व्यक्ति, एक वोट, एक मूल्य" का सिद्धांत बताता है कि सीटों का पुनर्वितरण आवश्यक है, लेकिन न्यायसंगत क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और राष्ट्रीय एकता की रक्षा के लिए सावधानीपूर्वक संतुलन बनाना भी आवश्यक है।

नीति निर्माताओं को इन प्रतिस्पर्धी हितों के बीच संतुलन बनाना होगा:

  • जनसंख्या नियंत्रण में सफलता पाने वाले किसी भी क्षेत्र को राजनीतिक रूप से हाशिए पर रहे
  • उत्तर-प्रधान संसद बनने से रोकना , जोकि दक्षिणी राज्यों के प्रभाव को कमजोर करती है।
  • भारत की "विविधता में एकता" (Unity in Diversity) को कायम रखना, ताकि राष्ट्रीय नीति निर्माण में सभी क्षेत्रीय आवाज़ों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिल सके।

जैसे-जैसे 2026 का परिसीमन नज़दीक रहा है, भारत अपने संघीय विकास के एक निर्णायक क्षण का सामना कर रहा है। आज लिए गए निर्णय आने वाले दशकों के लिए भारत के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देंगे, इसलिए इन प्रश्नों पर गंभीर, संतुलित और संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

 

मुख्य प्रश्न: भारत में दक्षिणी राज्यों के राजनीतिक प्रभाव पर संसदीय सीटों के जनसंख्या-आधारित पुनर्वितरण के संभावित प्रभाव का विश्लेषण करें। यह समतामूलक क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को कैसे प्रभावित कर सकता है?