संदर्भ:
- प्लास्टिक प्रदूषण वर्तमान में पूरी दुनिया के लिए एक व्यापक विचारणीय मुद्दा बन गया है, जिसकी उपस्थिति सबसे दूरस्थ और प्राचीन वातावरण, जिसमें हिमालय पर्वतमाला भी शामिल है, में देखा जा सकता है। ऊंची चोटियों से लेकर समुद्र की खाइयों की गहराई तक, प्लास्टिक कचरा एक सर्वव्यापी संकट बंता जा रहा है, जो पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करता है। यह लेख हिमालयी राज्यों में प्लास्टिक प्रदूषण की गंभीर स्थिति को रेखांकित करता है। साथ ही पर्यावरण, वन्यजीव और मानव स्वास्थ्य पर इसके हानिकारक प्रभावों को भी उजागर करता है। यह उन संकट के मूल कारणों की भी जांच करता है, जिसमें तेजी से शहरीकरण, बदलते उपभोग पैटर्न और पर्यटन में वृद्धि शामिल है। इसके अलावा, यह बढ़ते प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों की अपर्याप्तता के साथ-साथ कानूनी ढांचे और विभिन्न राज्यों द्वारा इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए किए गए पहलों को संरेखित करने काा पराया करता है।
हिमालयी राज्यों में प्लास्टिक प्रदूषण: एक बढ़ता संकट
- अपने भव्य परिदृश्य और समृद्ध जैव विविधता के लिए प्रसिद्ध हिमालयी क्षेत्र इस समय प्लास्टिक प्रदूषण के बढ़ते संकट से जूझ रहा है। बड़े प्लास्टिक मलबे के क्षरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले माइक्रोप्लास्टिक ने पहाड़ों, नदियों, झीलों और झरनों को व्यापक रूप से प्रभावित किया है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है।
- भारतीय हिमालय क्षेत्र (IHR), इस उपमहाद्वीप के लिए मीठे पानी के एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में कार्य करता है, जो गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख नदी प्रणालियों की उत्तरजीविता का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है। हालाँकि, प्लास्टिक कचरे के अवैज्ञानिक निपटान से मिट्टी और पानी प्रदूषित हो रहा है, जिससे क्षेत्र की जैव विविधता खतरे में पड़ रही है और निचले इलाकों के समुदायों के लिए आवश्यक मीठे पानी के स्रोत संकटापन्न स्थिति में हैं।
- शहरीकरण में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन और उपभोग पैटर्न में बदलाव ने भी हिमालयी राज्यों में प्लास्टिक कचरे की समस्या को बढ़ा दिया है। पर्यटकों की आमद ने इस मुद्दे को और भी जटिल बना दिया है, मौजूदा अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली ने बुनियादी ढांचे को प्रभावित किया है और प्लास्टिक कचरे को बड़े पैमाने पर विस्तारित किया है। सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज़ फाउंडेशन की एक हालिया रिपोर्ट इस स्थिति की गंभीरता को रेखांकित करती है, जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि वर्तमान उत्तराखंड के शहर प्लास्टिक कचरे में डूब रहे हैं।
- यद्यपि यह संकट उत्तराखंड से आगे भी विस्तृत है, तथापि अन्य हिमालयी राज्यों को भी इसी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इस संदर्भ में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्रों में अपशिष्ट डंपिंग की आवश्यकता को अनिवार्य बताया है, जो प्लास्टिक प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए सरकार के हस्तक्षेप की तत्काल आवश्यकता का संकेतक है।
प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन में चुनौतियाँ:
- ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम (swm) 2016 और प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (pwm) नियम 2016 जैसे नियामक ढांचे के अधिनियमन के बावजूद, हिमालयी राज्य प्लास्टिक कचरे को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने की चुनौती से जूझ रहे हैं। विस्तारित निर्माता उत्तरदायित्व (epr) 2022, उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों को अपने उत्पादों के अंतिम समय तक निपटान की जिम्मेदारी लेने का आदेश देता है, फिर भी संदर्भित कार्यान्वयन अपर्याप्त है, विशेषकर पहाड़ी इलाकों में। जबकि कुछ राज्यों ने प्लास्टिक के उपयोग पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाए हैं, उचित बुनियादी ढांचे की कमी प्रवर्तन प्रयासों में बाधा डालती है। हिमाचल प्रदेश और सिक्किम ने कुछ प्लास्टिक उत्पादों पर प्रतिबंध लागू किया है, लेकिन अपर्याप्त अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों के कारण गंदगी बनी रहती है।
- प्रभावी प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के लिए अपशिष्ट पृथक्करण आवश्यक है, फिर भी इसके उचित कार्यान्वयन में कमी है और लैंडफिल मिश्रित कचरे से भर जाता है। स्थानीय निकायों और उत्पादकों के बीच सहयोग की कमी स्थिति को और जटिल बनाती है। अपशिष्ट प्रबंधन में स्थानीय निकायों की महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद, उनमें शक्ति का हस्तांतरण अधूरा है, जो प्रभावी शासन में बाधा उत्पन्न करता है।
- इसके अलावा, कई हिमालयी राज्यों में प्रचलित पारंपरिक संस्थानों को अक्सर अपशिष्ट प्रबंधन पहल से बाहर रखा जाता है, जिसने समाधान में उनके संभावित योगदान को कम किया है। पर्वतीय क्षेत्र में अपशिष्ट प्रबंधन की विशिष्ट चुनौतियों का प्रभावी ढंग से समाधान करने के लिए डेटा अंतराल को समाप्त करना और संसाधन आवंटन को बढ़ाना अनिवार्य है।
कानूनी विनियमन और सरकार के प्रयास:
- एसडब्ल्यूएम, पीडब्लूएम और ईपीआर सहित प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन को नियंत्रित करने वाले कानूनी नियामक ढांचे, हिमालयी राज्यों में प्लास्टिक प्रदूषण संकट को संबोधित करने के लिए एक आधार प्रदान करते हैं। हालाँकि, ये शासनादेश अक्सर पर्वतीय क्षेत्रों की अद्वितीय भौगोलिक चुनौतियों के समाधान में विफल रहते हैं।
- हालांकि हिमाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे राज्यों ने प्लास्टिक के उपयोग पर विशेष कानूनी प्रतिबंध लागू किए हैं, फिर भी इन उपायों की प्रभावशीलता बुनियादी ढांचे और प्रवर्तन तंत्र की कमी के कारण सीमित है। मिजोरम और त्रिपुरा ने भी नियामक कदम उठाए हैं, लेकिन अभी तक जमीनी स्तर पर कोई ठोस परिणाम देखने को नहीं मिले हैं।
- इस समय प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के प्रयासों के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है, जिसमें स्थानीय निकायों को सशक्त बनाने और अपशिष्ट प्रबंधन बुनियादी ढांचे को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए। अपशिष्ट प्रबंधन पहल में पारंपरिक संस्थानों को शामिल करने से प्लास्टिक अपशिष्ट संकट को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए स्थानीय ज्ञान और संसाधनों का लाभ उठाया जा सकता है।
- इसके अलावा, स्वच्छ भारत मिशन और वित्त आयोग के अनुदान जैसी मौजूदा योजनाओं और पहलों का अभिसरण, हिमालयी राज्यों में अपशिष्ट प्रबंधन के लिए संसाधनों को बढ़ा सकता है। अपशिष्ट पृथक्करण और सार्वजनिक भागीदारी पर ध्यान देने के साथ, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन प्रयासों की सफलता सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय निकायों और उत्पादकों के बीच सहयोग आवश्यक है।
निष्कर्ष:
- प्लास्टिक प्रदूषण हिमालयी राज्यों के लिए एक गंभीर खतरा है, जिससे उनके प्राचीन पारिस्थितिक तंत्र और मीठे पानी के स्रोत खतरे में पड़ गए हैं। तेजी से बढ़ता शहरीकरण और पर्यटन के कारण प्लास्टिक कचरे के अंधाधुंध निपटान ने मौजूदा अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को प्रभावित किया है, जिससे पर्यावरणीय क्षरण बढ़ गया है। कानूनी नियामक ढांचे और सरकारी प्रयासों के बावजूद, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन की चुनौतियाँ अभी भी यथावत हैं, जिसके लिए राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।
- प्लास्टिक प्रदूषण संकट को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए स्थानीय निकायों को सशक्त बनाना, डेटा अंतराल को पाटना और हितधारकों के बीच सहयोग बढ़ाना आवश्यक उपाय हो सकते हैं। स्थायी अपशिष्ट प्रबंधन प्रथाओं को प्राथमिकता देकर और स्थानीय संसाधनों का उपयोग करके, हिमालयी राज्य प्लास्टिक प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभावों को कम कर सकते हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिए अपने नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा कर सकते हैं।
यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न: हिमालयी राज्य प्लास्टिक प्रदूषण के बढ़ते संकट का सामना कर रहे हैं, जिसका उनके पारिस्थितिक तंत्र और मीठे पानी के स्रोतों पर हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है। इस संकट के मूल कारणों पर चर्चा करें और क्षेत्र में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन की चुनौतियों से निपटने में मौजूदा नियामक ढांचे की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करें। हितधारकों के बीच सहयोग बढ़ाने और हिमालयी राज्यों में प्लास्टिक प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं? (10 अंक, 150 शब्द) हिमालयी राज्यों में प्लास्टिक कचरे का प्रबंधन भौगोलिक कारकों, तेजी से शहरीकरण और पर्यटन में वृद्धि के कारण अद्वितीय चुनौतियां पेश करता है। कानूनी अधिदेशों, प्रतिबंधों और अपशिष्ट प्रबंधन रणनीतियों सहित प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिए विभिन्न राज्यों द्वारा की गई पहलों का विश्लेषण करें। क्षेत्र में अपशिष्ट प्रबंधन प्रयासों को बढ़ाने के लिए पारंपरिक संस्थानों का लाभ कैसे उठाया जा सकता है, और प्लास्टिक अपशिष्ट संकट को दूर करने में मौजूदा योजनाओं का अभिसरण क्या भूमिका निभा सकता है? (15 अंक, 250 शब्द) |
स्रोत- द हिंदू