संदर्भ:
भारत में एनीमिया अब भी एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती बना हुआ है, जो विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और किशोरों को असमान रूप से प्रभावित करता है। रोकथाम और उपचार योग्य होने के बावजूद, पोषण संबंधी कमियों, पर्यावरणीय कारकों और अपर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल पहुंच जैसे बहुआयामी कारणों से एनीमिया जारी है।
- हालांकि भारत ने अपने स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को सुधारने में प्रगति की है, फिर भी एनीमिया की दर चिंताजनक रूप से ऊंची बनी हुई है। खराब आहार, समय से पहले गर्भधारण, अपर्याप्त मातृत्व देखभाल और आयरन युक्त खाद्य पदार्थों की सीमित उपलब्धता जैसी समस्याएं एनीमिया को बढ़ावा देती हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए भारत सरकार ने कई कार्यक्रम चलाए हैं, जिनमें ‘एनीमिया मुक्त भारत’ (AMB) अभियान प्रमुख है। हालांकि, हालिया शोध से अधिक जटिल तस्वीर सामने आई है, जिससे मौजूदा नीतियों पर
- पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस हो रही है।
एक राष्ट्रव्यापी अध्ययन (2016–2018) और ‘यूरोपियन जर्नल ऑफ क्लिनिकल न्यूट्रिशन’ में 2025 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, आयरन की कमी एनीमिया के कुल मामलों का केवल एक-तिहाई हिस्सा ही है। विटामिन B12 और फोलेट की कमी के साथ-साथ वायु प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय कारक भी अब इसके महत्वपूर्ण कारण माने जा रहे हैं।
एनीमिया को समझना: लक्षण और प्रभाव:
एनीमिया तब होता है जब खून में पर्याप्त हीमोग्लोबिन नहीं होता जिससे ऑक्सीजन का परिवहन ठीक से नहीं हो पाता। इसके लक्षणों में थकान, चक्कर आना, हाथ-पैर ठंडे पड़ना और शारीरिक सहनशक्ति में कमी शामिल हैं। यह स्थिति विशेष रूप से निम्नलिखित संवेदनशील समूहों को प्रभावित करती है:
• पाँच साल से कम उम्र के बच्चे (विशेषकर दो साल से कम उम्र के)
• किशोरी लड़कियाँ और महिलाएँ
• गर्भवती और प्रसवोत्तर महिलाएँ
बचपन में आयरन की कमी से मानसिक और शारीरिक विकास पर गंभीर असर पड़ सकता है, जबकि वयस्कों में यह उत्पादकता को घटाता है। गर्भावस्था में एनीमिया से जन्म के समय कम वजन, समय से पहले प्रसव और शिशु मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है।
विश्व स्तर और भारत में एनीमिया का बोझ:
एनीमिया एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट है। वर्ष 2019 में लगभग 50 करोड़ महिलाएं (15–49 वर्ष) और 26.9 करोड़ पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चे एनीमिया से पीड़ित थे। गैर-गर्भवती महिलाओं में एनीमिया की दर 30% (लगभग 53.9 करोड़) और गर्भवती महिलाओं में 37% (लगभग 3.2 करोड़) थी।
भारत में, राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (2019–2021) ने महिलाओं और बच्चों में एनीमिया का लगातार बना हुआ बोझ दर्शाया है। दशकों से पोषण आधारित प्रयासों के बावजूद कई जनसंख्या वर्गों जैसे प्रजनन आयु की महिलाओं, किशोरों और वृद्धों में एनीमिया की दर स्थिर या और बढ़ गई है।
एनीमिया के कई कारण हो सकते हैं, जो केवल आयरन की कमी तक सीमित नहीं हैं, जैसे:
• विटामिन B12, फोलेट, विटामिन A, D और जिंक की कमी
• किडनी रोग, गठिया और कैंसर जैसी दीर्घकालिक बीमारियाँ
• मलेरिया और तपेदिक जैसे संक्रमण, विशेष रूप से गरीब समुदायों में
• पर्यावरणीय कारक, विशेषकर वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण और अन्य कारकों के कारण एनीमिया:
- अनुसंधान से स्पष्ट हुआ है कि एनीमिया कई कारणों से होता है और केवल आयरन आधारित उपचार नीतियाँ पर्याप्त नहीं हैं। सिर्फ 25–30% एनीमिया के मामले आयरन सप्लीमेंट से ठीक हो सकते हैं। इसलिए, एनीमिया से निपटने के लिए एक समग्र और बहुआयामी दृष्टिकोण जरूरी है।
- अध्ययनों के निष्कर्ष से एक अन्य प्रमुख कारण वायु प्रदूषण से भी है। शोध से पता चला है कि PM 2.5 (सूक्ष्म कण प्रदूषण) में 10 µg/m³ की वृद्धि से बच्चों में एनीमिया के मामलों में 10% और प्रजनन आयु की महिलाओं में 7.2% वृद्धि देखी गई है।
- PM 2.5 जैसे प्रदूषक साइटोकाइन्स (प्रतिरक्षा प्रणाली की संकेत देने वाली प्रोटीन) के उत्पादन को बढ़ाते हैं, जिससे यकृत (लिवर) में हेप्सिडिन नामक हार्मोन का स्राव होता है, जो आयरन के अवशोषण को रोकता है। इसके अलावा वायु प्रदूषण अस्थि मज्जा (बोन मैरो) की गतिविधि को भी कम करता है, जिससे लाल रक्त कोशिकाओं का उत्पादन घट जाता है।
- चूँकि भारत में व्यापक रूप से PM 2.5 के अस्वस्थ स्तर का संपर्क होता है, वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने से एनीमिया की दर में काफी गिरावट आ सकती है। उदाहरण के लिए, यदि भारत अपने स्वच्छ वायु लक्ष्यों को प्राप्त कर लेता है, तो प्रजनन आयु की महिलाओं में एनीमिया की दर 39.5% तक घटाई जा सकती है और 186 जिलों को राष्ट्रीय लक्ष्य 35% से नीचे लाया जा सकता है।
भारत में नीतिगत हस्तक्षेप:
भारत सरकार द्वारा 2018 में शुरू किया गया ‘एनीमिया मुक्त भारत’ (AMB) कार्यक्रम एनीमिया संकट को दूर करने के लिए एक व्यापक प्रयास है। यह 6x6x6 रणनीति पर आधारित है, जिसमें छह प्राथमिक समूह, छह हस्तक्षेप और छह संस्थागत तंत्र शामिल हैं। लक्षित समूहों में शामिल हैं:
1. पूर्व-स्कूली बच्चे (6–59 महीने)
2. बच्चे (5–9 वर्ष)
3. किशोर (10–19 वर्ष)
4. गर्भवती महिलाएं
5. स्तनपान कराने वाली माताएं
6. प्रजनन आयु की महिलाएं (15–49 वर्ष)
AMB के तहत प्रमुख हस्तक्षेप:
1. आयरन और फोलिक एसिड की रोकथामात्मक खुराक (IFA):
- बच्चों (6–59 महीने) के लिए सप्ताह में दो बार IFA सिरप
- स्कूली बच्चों, किशोरों और महिलाओं के लिए सप्ताह में एक बार IFA टैबलेट
- गर्भवती और प्रसवोत्तर महिलाओं के लिए प्रतिदिन सप्लीमेंटेशन
2. वर्ष में दो बार कृमि मुक्ति अभियान:
फरवरी और अगस्त में राष्ट्रीय कृमि मुक्ति दिवस के दौरान, गर्भवती महिलाओं को ANC (एंटीनेटल केयर) विजिट के समय सेवा प्रदान की जाती है।
3. व्यवहार परिवर्तन संचार अभियान:
"सॉलिड बॉडी, स्मार्ट माइंड" अभियान के माध्यम से पोषण, स्वच्छता, कृमि मुक्ति और IFA के पालन को बढ़ावा दिया जाता है।
4. पॉइंट-ऑफ-केयर टेस्टिंग और डिजिटल उपचार उपकरण:
स्कूल जाने वाले किशोरों और गर्भवती महिलाओं के लिए समय पर जांच और उपचार पर बल दिया जाता है।
5. फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों की अनिवार्य उपलब्धता:
सभी सरकारी पोषण कार्यक्रमों में आयरन और फोलिक एसिड युक्त फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों को शामिल किया गया है।
6. गैर-पोषण संबंधी कारणों का समाधान:
मलेरिया और फ्लोरोसिस जैसे रोगों की जांच और उपचार उन क्षेत्रों में किए जाते हैं जहाँ ये बीमारियाँ आम हैं।
ये हस्तक्षेप पहले से मौजूद प्लेटफार्म जैसे राष्ट्रीय आयरन प्लस पहल (NIPI) और साप्ताहिक आयरन व फोलिक एसिड अनुपूरण (WIFS) से समर्थित हैं, जो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) से जुड़े हुए हैं।
वर्तमान फोर्टिफिकेशन नीतियों की सीमाएं:
AMB कार्यक्रम आयरन और फोलिक एसिड अनुपूरण तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फोर्टिफाइड चावल को बढ़ावा देता है, लेकिन इन प्रयासों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आयरन का सार्वभौमिक फोर्टिफिकेशन एनीमिया के अन्य कारणों का समाधान नहीं करता, और आयरन की अधिकता से मधुमेह जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं—जो कि भारत में 10.1 करोड़ लोगों को प्रभावित कर रहा है।
इसके अलावा, अनाज-आधारित खाद्य नीति से आहार विविधता में कमी आती है, जिससे पोषण की कमी और बढ़ जाती है। विशेषज्ञ जैसे कि कुरपाड फलों और सब्जियों पर आधारित पोषण नीति को अपनाने की वकालत करते हैं, ताकि स्वास्थ्य लाभ व्यापक और सुलभ हो सकें।
बायोएवेलिबिलिटी (शरीर में पोषक तत्वों के अवशोषण) में सुधार:
आयरन का अवशोषण भोजन से जुड़ा होता है। विटामिन C आयरन के अवशोषण को 25% तक बढ़ा सकता है, जबकि फिटेट्स, टैनिन (चाय/कॉफी में पाए जाने वाले) और कैल्शियम इसको अवरुद्ध करते हैं। हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्र में 2024 में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि मूंग आधारित स्कूल भोजन में अमरूद जोड़ने से एनीमिया की दर में काफी कमी आई, जिससे यह साबित होता है कि आयरन के साथ विटामिन C युक्त खाद्य पदार्थों का सेवन बहुत उपयोगी है।
जागरूकता और व्यवहार परिवर्तन की चुनौतियाँ:
एनीमिया एक जागरूकता से जुड़ी समस्या भी है। कई लोग साइड इफेक्ट्स जैसे कब्ज की वजह से सप्लीमेंट लेना बंद कर देते हैं। विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हैं कि जन-जागरूकता अभियानों, सामुदायिक भागीदारी और सार्वजनिक हस्तियों की मदद से एनीमिया शिक्षा को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। यदि व्यापक सामाजिक समर्थन न हो, तो अच्छी नीतियाँ भी लंबे समय तक सफल नहीं हो पातीं।
निष्कर्ष:
एनीमिया एक जटिल स्थिति है, जो पोषण, पर्यावरण, पुरानी बीमारियों और सामाजिक जागरूकता से प्रभावित होती है। इसे समाप्त करने के लिए केवल खाद्य समाधान पर्याप्त नहीं हैं। भारत को पर्यावरणीय सुधारों, विविध आहार, लक्षित अनुपूरण और मजबूत सामुदायिक भागीदारी को एकीकृत करके एक व्यापक और समग्र सार्वजनिक स्वास्थ्य रणनीति अपनानी होगी, ताकि एनीमिया की दर प्रभावी रूप से घटाई जा सके।
मुख्य प्रश्न: भारत में एनीमिया संकट से निपटने में ‘एनीमिया मुक्त भारत’ (AMB) कार्यक्रम की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिए। इसके कार्यान्वयन को बेहतर बनाने के लिए और कौन से उपाय किए जा सकते हैं? |