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Wide-Angle / 22 Feb 2020

(Wide Angle with Expert) वैश्विक ऊष्मीकरण द्वारा सुनील वर्मा (Global Warming by Sunil Verma)


                    (Wide Angle with Expert) वैश्विक ऊष्मीकरण द्वारा सुनील वर्मा (Global Warming by Sunil Verma)


(Wide Angle with Expert) वैश्विक ऊष्मीकरण द्वारा सुनील वर्मा (Global Warming by Sunil Verma)


विषय का नाम (Topic Name): वैश्विक ऊष्मीकरण (Global Warming)

विशेषज्ञ का नाम (Expert Name): सुनील वर्मा (Sunil Verma)


ग्रीनहाउस प्रभाव और अन्य कारणों से संपूर्ण विश्व में देखी जा रही ताप-वृद्धि को वैश्विक तापमान (Global Warming) कहा जाता है। लगातार बढ़ती औद्योगिक गतिविधियाँ, शहरीकरण, आधुनिक रहन-सहन, धुँआ उगलती चिमनियाँ, निरंतर बढ़ते वाहनों एवं ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव से पृथ्वी के औसत तापमान में जो निरंतर वृद्धि हो रही है, उससे संपूर्ण विश्व प्रभावित हो रहा है।

वैश्विक तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। एक अध्ययन के अनुसार गंगा के जल का स्रोत गंगोत्री हिमनद सहित हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। तापमान बढ़ने के कारण दक्षिणी ध्रुव में महासागरों के आकार के हिमखण्ड टूटकर अलग हो रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व अंटार्कटिक के लार्सन हिमक्षेत्र का 500 अरब टन का एक हिमशैल टूटकर अलग हो गया। हाल ही में यह घटना फिर से घटी है इसे लार्सन-C नाम दिया गया। अनुमान लगाया जा रहा है यदि तापवृद्धि का वर्तमान दौर जारी रहा तो 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान में 1.8 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि हो सकती है। इससे ध्रुवों पर जमी बर्फ तथा हिमनदों के पिघलने से समुद्र का जल-स्तर 5 मीटर तक बढ़ सकता है। परिणामस्वरूप मालदीव तथा जापान के अनेक द्वीपों सहित भारत के यूरोप के कई देशों के तटीय क्षेत्र पानी में डूब जाएंगे।

भूमण्डलीय ऊष्मन और ग्रीनहाउस प्रभाव

भूमण्डलीय ऊष्मन (Global Warming): वैश्विक तापमान में वृद्धि लगभग दो दशकों से अत्यधिक देखने को मिली है। वर्ष 1992 से वैश्विक ताप का मापन प्रत्येक वर्ष किया जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप तापमान में प्रत्येक वर्ष वृद्धि देखने को मिली है।

‘भूमण्डलीय ऊष्मीकरण’ का अर्थ पृथ्वी के निकटस्थ सतह की वायु और महासागर के औसत तापमान में हो रही वृद्धि से है। औसतन तापमान में वृद्धि का मुख्य कारण प्राकृतिक एवं मानव निर्मित कारक दोनों हैं। मानव निर्मित कारकों में ग्रीन हाउस गैसों की अधिक मात्र का होना है तथा प्राकृतिक कारकों में ज्वालामुखी द्वारा उत्सर्जित गैसें तथा जलवाष्प, सौर परिवर्तन जैसी घटनाएँ शामिल हैं।

कार्बन डाइआक्साइड (CO2)

यह एक प्राथमिक हरितगृह गैस है, जो मानवीय क्रियाकलापों द्वारा उत्सर्जित होती है कार्बन डाइआक्साइड वातावरण में प्राकृतिक रूप से पृथ्वी के कार्बन चक्र के रूप में मौजूद रहती है, यह ताप को अधिक मात्र में अवशोषित करती है साथ ही इस गैस की वैश्विक तापन में लगभग 60% भागीदारी है।

मीथेन (CH4)

वायुमण्डल में मीथेन की मात्र बहुत कम होने के बाद भी यह वायुमण्डल को कार्बन डाईआक्साइड की तुलना में 21 गुना ज्यादा गर्म करता है। वैश्विक तापन में इसका योगदान लगभग 20» है। मीथेन अपूर्ण अपघटन का उत्पाद है एवं अनॉक्सी दशाओं (Anaerobic conditions) में मीथेनोजन जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होती है साथ ही आर्द्रभूमि, कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीजन के साथ अपघटन होने पर धान के खेतों से चरने वाले जानवरों और दीमक द्वारा सेल्युलोज के पाचन से भी उत्पन्न होती है।

जलवाष्प (H2O)

यह पार्थिव विकिरण का अवशोषण कर CO2 की तरह ग्रीनहाउस प्रभाव उत्पन्न करता है। जलवाष्प सूर्यातप के कुछ अंश को ग्रहण कर सूर्य से आने वाली ऊष्मा की मात्र को कम करता है। मानव को जलवाष्प उत्पन्न करने हेतु प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार नहीं माना जाता है, क्योंकि मानव जलवाष्प की उतनी मात्र उत्सर्जित नहीं करता जिससे वातावरण के सांद्रण में परिवर्तन हो जाए।

वातावरण में जलवाष्प की मात्र बढ़ने के अन्य कारण CO2 तथा हरित गैसे भी हैं जिनके कारण पेड़-पौधों में वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। ब्व्2 की तरह जलवाष्प हवा में स्थायी रूप में नहीं रहती, क्योंकि यह जल चक्र द्वारा जल भंडारों एवं वर्षा तथा हिम के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

नाइट्रस ऑक्साइड (N2O)

नाइट्रस ऑक्साइड नाइट्रोजन चक्र के रूप में वातावरण में प्राकृतिक रूप से मौजूद है। यह गैस वैश्विक तापन में लगभग 6% योगदान देती है। नाइट्रस ऑक्साइड को लाफिंग गैस भी कहा जाता है।

फ्रलूरीनेटेड गैस

फ्रलूरीनेटेड गैस मुख्य रूप से औद्योगिकीकरण (जैसे- एल्युमिनियम एवं अर्द्धचालक के निर्माण द्वारा) क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होती है। फ्रलूरीनेटेड गैसे अन्य हरितगृह गैसों की अपेक्षा वैश्विक तापन को तेजी से बढ़ाती है। फ्रलूरीनेटेड गैसे दीर्घजीवी और प्रबल प्रकार की ग्रीन हाउस गैस हैं। ये गैसें मानवीय क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होती है। ये तीन प्रकार की होती हैं, जो निम्न हैं-

  • हाइड्रोफ्रलूरोकार्बन (HFCs-Hydroflurocarbons)
  • परफ्रलूरोकार्बन (PFCs-Perflurocarbons)
  • सल्फर हेक्साफ्रलूराइड (SF6-Sulufur hexafluoride)

हाइड्रोफ्रलूरोकार्बन शीतप्रशीतक, एरोसॉल नोदक, विलायक एवं अग्निशमन यंत्रें में प्रयोग किये जाते हैं। हाइड्रोफ्रलूरोकार्बन को CFCs एवं HCFCs के प्रतिस्थापन के रूप में लाया गया था। यह गैस ओजोन विघटनकारी नहीं बल्कि एक ग्रीन हाउस गैस है, इसे माँट्रियल प्रोटोकॉल द्वारा विनियमित किया जाता है।

परफ्रलूरोकार्बन औद्योगिक प्रक्रियाओं के सह-उत्पाद होते है जो एल्युमिनियम एवं अर्द्धचालकों के निर्माण से जुड़े होते हैं। यह भी वातावरण में लम्बे समय तक बनी रहती है।

सल्फर हेक्साफ्रलूराइड का प्रयोग विद्युत उपकरणों में होता है यह मैग्नीशियम व अर्द्धचालकों के निर्माण के प्रयोग में लायी जाती है।

ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को बढ़ाने वाले अन्य कारक

काला कार्बन (Black Carbon): ब्लैक कार्बन एक ठोस कण अथवा एरोसॉल (Aerosol) है (जिसे कालिख भी कहा जाता है।) यह बायोमास और जैव ईंधन के अपूर्ण दहन द्वारा उत्पन्न होता है।

ब्लैक कार्बन प्रकाश का अवशोषण कर वैश्विक तापन को बढ़ाने में योगदान देता है साथ ही एल्बिडों के प्रभाव में कमी लाता है क्योंकि यह बर्फ तथा हिम पर जमा हो जाता है।

काला कार्बन CO2 की अपेक्षा 10 लाख गुना प्रकाश का अवशोषण करता है और सूर्य प्रकाश तथा ऊष्मा को सीधे अवशोषित करता है जिससे वैश्विक ताप में वृद्धि होती है।

क्षेत्रीय रूप में ब्लैक कार्बन मानसून तथा बादलों में व्यवधान डालते हैं। साथ ही ग्लेशियर, आर्कटिक तथा हिमालय जैसे क्षेत्रें के पिघलने की दर में भी तेजी आई है। हालांकि ब्लैक कार्बन केवल कुछ दिन या सप्ताह हो जाता है।

एक अनुमान के अनुसार ब्लैक कार्बन में भारत तथा चीन का योगदान लगभग 25» से 35» है, जो कि जलाए गए कोयले द्वारा तथा घरों में खाना बनाने हेतु लकड़ी व गोबर के बने उपलों के जलने से उत्सर्जित होता है।

भारत सरकार द्वारा ब्लैक कार्बन कम करने हेतु प्रोजेक्ट सूर्य चलाया जा रहा है जिसके अंतर्गत सोलट लैम्प बायोगैस प्लांट्स, सोलर कुकर तथा स्टोव प्रौद्योगिकी द्वारा ब्लैक कार्बन को कम करने का प्रयास जारी है।

भूरा कार्बन (Brown Carbon)

  • भूरा कार्बन एक प्रकार का एरोसॉल (Aerosol) है जो कि प्रकाश को अवशोषित करने वाला कार्बनिक पदार्थ है। इसका रंग भूरा और पीला होता है।
  • ब्राउन कार्बन का उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन के दहन, बायोमास के जलने और बायोएरोसॉल के जलने से उत्पन्न होता है।
  • ब्राउन कार्बन भी हरित गृह गैसों से सम्बोधित किया जाता है।
  • जलवायु दबाव

प्राकृतिक दबाव

  • प्राकृतिक दबाव सूर्य द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा की मात्र में बदलाव।
  • ज्वालामुखी उद्गार
  • पृथ्वी की कक्षा में बहुत धीमा परिवर्तन

मानव प्रेरित दबाव

  • भूमि उपयोग में परिवर्तन (जैसे- पेड़-पौधों की कटाई)
  • जीवाश्म ईंधन के जलने से एरोसॉल का उत्सर्जन
  • हरिगृह गैसों का उत्सर्जन

क्या सचमुच ग्लोबल वॉर्मिग जैसी कोई प्रक्रिया हो रही है?

जलवायु में बदलाव हो रहा है, इसके प्रमाण में निम्न बिन्दुओं को देख सकते हैं-

  1. वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड और ग्रीन हाउस गैसों की मात्र में बेतहाशा इजाफा हो रहा है।
  2. प्रयोगों के द्वारा यह भी साबित हो चुका है कि ग्रीन हाउस जबवायुमंडल में मौजूद होती हैं तो वे सूरज की गर्मी को अवशोषित करती हैं, जिससे वातावरण का तापमान बढ़ता है।
  3. पिछले 100 सालों में विश्व के तामपान में कम से कम 0.85°° सेल्सियस की बढ़ोत्तरी हुई है। इतना ही नहीं, इस दौरान समुद्र स्तर में भी 20 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है।
  4. पृथ्वी की जलवायु में चिंताजनक ढंग से बदलाव हो रहा है। मसलन उत्तरी गोलार्द्ध में हिमपात का कम होना, आर्कटिक महासागर में बर्फ का पिघलना और सभी महाद्वीपों में ग्लेशियरों का पिघलना।
  5. पिछले 150 सालों में प्राकृतिक घटनाओं में भी जबरदस्त बदलाव देऽने को मिल रहा है। जैसे कि बेमौसम बारिश और ज्वालामुखी विस्फोट। हालाँकि सिर्फ इन घटनाओं से ग्लोबल वॉर्मिंग को नहीं आंका जा सकता।
  6. पिछले 50 वर्षों में वॉर्मिंग की प्रवृत्ति लगभग दोगुना हो गई है। (पिछले 100 वर्षों के मुकाबले) इसका अर्थ है की वॉर्मिंग प्रवृत्ति की रफ्रतार बढ रही है।
  7. समुद्र का तापमान 3000 मीटर (लगभग 9,800 फीट) की गहराई तक बढ चुका है_ समुद्र जलवायु के बढे हुए तापमान की गर्मी का 80 प्रतिशत सोऽ लेते हैं।
  8. उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्धों में ग्लेशियर और बर्फ से ढके क्षेत्रें में कमी हुई है, जिसकी वजह से समुद्र का जलस्तर बढ गया है।
  9. पिछले 100 वर्षों से अंटार्टिका का औसत तापमान पृथ्वी के औसत तापमान से दोगुनी रफ्रतार से बढ रहा है। अंटार्कटिका में बर्फ जमे हुए क्षेत्रें में 7 प्रतिशत की कमी हुई है, जबकि मौसमी कमी की रफ्रतार 15 प्रतिशत तक हो चुकी है।
  10. उत्तरी अमेरिका के कुछ हिस्से, उत्तरी यूरोप और उत्तरी एशिया के कुछ हिस्सों में बारिश ज्यादा हो रही है जबकि भूमध्य और दक्षिण अफ्रीका में सूखे के रुझान बढते जा रहे हैं। पश्चिमी हवाएँ बहुत मजबूत होती जा रही हैं।
  11. अटलांटिक समुद्र की सतह के तापमान में वृद्धि की वजह से कई तूफानों की तीव्रता में व्रद्धि देखी गयी है, हालांकि उष्णकटिबंधीय तूफानों की संख्या में वृद्धि नहीं हुई है।

ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

जलवायु पर प्रभाव

तापमान में यह परिवर्तन मध्य और उच्च अक्षांश वाले प्रदेशों में हो सकते हैं। दक्षिणी और पूर्वी एशिया में जहाँ गर्मियों में वर्षा की मात्र घट सकती है तथा उच्च अक्षांश वाले प्रदेशों में ग्रीष्म और शीतकालीन वर्षा की मात्र घट सकती है, वहीं निम्न अक्षांश वाले प्रदेशों में शीतकालीन वर्षा घट सकती है। यही नहीं, पृथ्वी के विभिन्न भागों में बाढ़ और सूखे का प्रकोप बढ़ सकता है। इसके अलावा औद्योगिक नगरों में यदा कदा अम्लीय वर्षा भी हो सकती है जिससे, जल, भूमि, वनस्पति और भावनों के स्वरूप प्रभावित हो सकते हैं।

इस प्रकार वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन हो रहा हैं परिणामस्वरूप विभिन्न प्रकार की बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है जिससे न सिर्फ मानव अपितु सभी जैविक प्राणियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है, विशेषकर उष्ण और उष्णकटिबंधीय प्रदेशों के निवासियों के लिए, क्योंकि जिस रफ्रतार से वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्र बढ़ रही है उससे आने वाले कुछेक वर्षों में विश्व का तापमान लगभग आधा डिग्री सेल्सियस और बढ़ेगा, जिसके परिणामस्वरूप गर्म हवाएँ चलेंगी और समुद्री तूफानों का रूप और विकराल हो जाएगा। इससे मानसून भी प्रभावित होगा, जिससे विशेषतः दक्षिणी और दक्षिणी-पूर्वी एशिया के लोग काफी प्रभावित होंगे।

वनस्पति पर प्रभाव

वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र में वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग की स्थिति काप्रभाव बहुत से पेड़-पौधों के विकास पर पड़ेगा। यद्यपि वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्र बढ़ जाने के कारण पौधों में प्रकाश संश्लेषण की दर बढ़ सकती है जिससे बहुत ही कम समय में पौधों की संख्या और उसके आकार में 25 प्रतिशत तक की वृद्धि संभव हो सकती है। जिससे अंततः हानिकारक प्रभाव ही पड़ेगा।

समुद्र के जल स्तर में परिवर्तन

वैज्ञानिक अध्ययन में यह बात अब प्रमाणित हो चुकी है कि बीसवीं शताब्दी में 2 मिली मीटर से समुद्र के जलस्तर में वृद्धि हुई और अनुमान है कि 21वीं शताब्दी के अंत तक सुमद्र का जल स्तर लगभग 0-88 मीटर से 3 मीटर तक बढ़ जाएगा। इसमें वैश्विक कोष्णता का बहत बड़ा योगदान होगा क्योंकि अंटार्कटिक की विशाल हिमराशि और ग्रीनलैंड के हिमचादरों के पिघलने के कारण समुद्र का जलस्तर काफी बढ़ जायेगा जो न सिर्फ मनुष्य की अपितु समूचे (जैव) जीव जगत को प्रभावित करेगा, विशेषकर उन समीपवर्ती क्षेत्रें को जो समुद्र तट के 50 कि-मी- की सीमा में आते हैं। इसके फलस्वरूप बहुत से नगर और तटीय क्षेत्र बाढ़ के खतरे के अंदर आ जाएंगे, बहुत से छोटे-छोटे द्वीप डूब जाएंगे। नमकीन दलदलों द्वारा अनेक एश्चुअरी तथा उच्च उत्पादकता वाली कृषि भूमि, पक्षी एवं मछली के प्रजनन क्षेत्रें का हरण हो जाएगा। समुद्रतटीय क्षेत्रें में पायी जाने वाली वनस्पति मैंग्रोव डूब जाएगी। इस प्रकार समुद्र के जलस्तर में वृद्धि का मानव अधिवास, पर्यटन, शुद्ध जलापूर्ति, समुद्री संसाधन, कृषि, भूमि, वनस्पति तथा आधारभूत संरचना पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर प्रभाव

बहुत से पेड़ पौधे तथा जीव-जंतु एक तापमान विशेष पर ही पाये जाते हैं या उनका विकास हो सकता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण इन जीव जन्तुओं तथा पेड़-पौधों की लगभग 40% प्रजातियाँ नष्ट हो सकती हैं या अपने मूल स्थान में स्थानांतरित हो सकती है और इस प्रकार इनका अक्षांशीय वितरण प्रभावित हो सकता है। उदाहरण के रूप में समुद्री जीव प्रवाल को ही लें, इनका विकास एक निश्चित ढाल, तापमान तथा गहराई पर ही होता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़े हुए समुद्र के जल स्तर के फलस्वरूप इनका विकास, वितरण एवं इनके द्वारा निर्मित विभिन्न स्थलाकृतिक संरचनाएं प्रभावित हो सकती हैं। इस प्रकार बहुत-सी वनस्पतियों तथा जीवों का पलायन धीरे-धीरे ध्रुवीय प्रदेशों या उच्च पर्वतीय प्रदेशों की तरफ हो सकता है। ऐसा अनुमान है कि यदि इक्कीसवीं सदी में 2.5°C की तापमान वृद्धि हो जाती है तो उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में पायी जाने वाली वनस्पति 250 से 500 कि-मी- तक ध्रुवीय प्रदेशों की तरफ खिसक सकती है। यहीं नहीं जब तक वनस्पतियाँ बढ़े हुए तापमान के अनुरूप अपने आप को ढाल पाएंगी, तब तक बड़ी संख्या में वनस्पतियाँ नष्ट हो चुकी होंगी। खाद्यान्न पर प्रभाव तापमान में वृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग के कारण पौधों में विभिन्न प्रकार की बीमारियों का प्रकोप बढ़ेगा जिसे दूर करने के लिए उतनी ही जोर से कीटनाशकों का उपयोग होगा। इन सभी परिस्थितियों में कुल मिलाकर खाद्यान्न का उत्पादन घटेगा साथ ही, भूमि और जल दोनों प्रदूषित होंगे। यदि थोड़ी मात्र में तापमान में वृद्धि होती है तो समशीतोष्ण प्रदेशों में उत्पादकता में अल्प वृद्धि हो सकती है परन्तु यदि तीव्र वृद्धि होती है तो उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रें में निश्चित रूप से फसल की उत्पादकता में हानिकारक प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के लिए विश्व के प्रमुख चावल उत्पादक क्षेत्रें विशेषकर दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया में प्रति 1°C तापमान में वृद्धि उत्पादकता में 5 प्रतिशत तक की कमी ला सकती है।